________________
नल दमयन्ती की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् गये।
उधर बटुक क्षुधापीड़ित होकर भोजन ग्रहण करने के लिए दानशाला में गया। प्रविष्ट होते ही अपने सामने दमयन्ती को देखकर प्रफुल्लित आँखों से उसे प्रणाम करते हुए परम प्रमोद को प्राप्त हुआ। दोनों हाथों को मुकुट की तरह मस्तक पर धारण करके कहा-हे देवी! आपकी यह दुर्दशा कैसे हुई? आप तुषारापात से मुरझायी हुई नागवल्लरी के समान क्यों दिखायी दे रही हैं? पर मेरे भाग्य से मैंने जीवित दमयन्ती देवी को देख लिया। इस प्रकार आनन्द रस के द्वारा तृप्त होता हुआ, अपनी भूख प्यास को भूलकर वह चन्द्रयशा देवी के पास जाकर बोला-देवी! बधाई हो! दमयन्ती यहाँ है जिसे दानशाला में मैंने देखा है। यह सुनकर शीघ्र ही देवी चन्द्रयशा वहाँ आयी और आकाश में रही हुई पताका की तरह दमयन्ती को गले से लगा लिया। फिर कहा-हा! हा! धिक्कार है मुझे! हे वत्से! असाधारण लक्षणों से लक्षित भी तुम्हें मैंने नहीं पहचाना। भाग्य से हुई इस दुर्दशा में मेरी बुद्धि कैसी गोपित हो गयी।
व्यसनं स्यान्न किं चन्द्रसूर्ययोर्देवयोरपि । क्या चन्द्रसूर्य देवों को ग्रहण नहीं लगता?
लेकिन हे पुत्री! नल ने तुम्हें त्यागा या तुमने नल को त्याग दिया? निश्चय ही नल ने तुमको त्यागा होगा। क्योंकि
पुरुषः परुषः खलु । पुरुष निश्चय ही कठोर होता है।
अगर तुम्हारी जैसी पतिव्रता पत्नी के सामने भी पति व्यसन को प्राप्त हो जाय, तो भूमि रसातल में चली जायगी। इसमें कोई संशय नहीं है। हाय! नल इस गुणवती का त्याग करते हुए जरा भी लज्जित नहीं हुआ। अगर यह उसके लिये भार स्वरूप थी, तो इसे मेरे पास क्यों नहीं छोड़ा। तब तुम्हारी इस प्रकार की दुर्दशा तो न होती। अगर वह मुझे दिखायी दिया, तो मैं कभी उसे क्षमा नहीं करूँगी। सतत सहज उद्योत करनेवाला वह तुम्हारा भालतिलक कहाँ है? तब उसने अपने थूक से उसके भाल को रगड़ा। चमकते हुए आदर्श के समान, कसौटी से उतरे हुए स्वर्ण की तरह कांतिमान तिलक ने क्षण भर में ही अपनी कान्ति के कल्लोल से विश्व को आप्लावित कर दिया। ___तब उसे वल्कलचीरी की तरह सुगंधित जल से स्नान कराकर उसकी उलझी हुई जटाओं को सुलझाया। देवदूष्य के समान अदूषित वस्त्रों से संपूर्ण चर्म सहित शरीर को निर्मल बनाने के लिए भीम सुता ने स्नेहपूर्वक अपने शरीर को आवृत्त किया। उत्साह, हर्ष से निवृत्त परिरक्षिकाओं से संवृत्त दमयन्ती के साथ देवी ने नृप के आस्थान मण्डप को सुशोभित किया। तभी गगन के आँगन का दीपक सूर्य अस्त दशा को प्राप्त हुआ। अन्धकार भूखे राक्षस की तरह संपूर्ण आकाश को खाने लगा। लेकिन राजा की परिषद में अंधकार का लेश भी प्रविष्ट नहीं हुआ। द्वार में स्थित वैदर्भी के तिलकांशुओं द्वारा वह निवारित हो गया। इस करामात को देखकर राजा ने कहा-सूर्य अस्त हो चुका है, फिर भी बिना दीपक, बिना अग्नि के सूर्य से भी अतिशय यह तेज कहाँ से आ रहा है? तब रानी ने राजा को दमयन्ती के ललाट रूपी सूर्य से तेजोरत्न महोदधि के समान तिलक को दिखाया। उसके प्रभाव को जानने के लिए राजा ने रानी को उसके ललाट पर हाथ रखने के लिए कहा। क्योंकि दमयन्ती किसी भी पर पुरुष का स्पर्श नहीं करती थी। रानी की हथेली द्वारा तिलक आवृत्त हो जाने से राजा का वह आस्थान अंधकार की खान के समान हो गया। तब रानी का हाथ हटवाकर राजा ने भैमी से उसका वृत्तान्त पूछा। भैमी ने रोते हुए नत-मुख द्वारा राज्य भ्रंशादि संपूर्ण वृत्तान्त कहा। अपने उत्तरीय वस्त्र से उसकी आँखों को पोंछते हुए रानी ने कहा-हे पुत्री! मत
61