SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नल दमयन्ती की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् वल्लभा है। उनका राज्य यहाँ से ४०० योजन से भी अधिक दूर है। अपने राज्य से इस राज्य की स्पर्धा करके आना भी असंभव है। महादेवी की नगर के बाहर एक बड़ी दानशाला थी। जहाँ दुःस्थितिवालों को उस स्थिति का निवारण करने के लिए दान दिया जाता था। भैमी ने एक दिन देवी से कहा-देवी! आपकी आज्ञा हो, तो वहाँ दान देने का काम मैं संभाल लूँ। कदाचित् भोजन के लिए मेरे पति वहाँ आ जायें। देवी के आदेश से तब से प्रतिदिन भीमसुता वहाँ दान देने लगी। पति को देखने की स्पृहा अनिर्विघ्न रूप से दिन रात करने लगी। स्वच्छ भाव से प्रतिदिन प्रतियाचक को दान देते हुए पूछती कि आपने कोई भी, कहीं भी क्या इस प्रकार का, उस प्रकार का पुरुष देखा है? उसने एक दिन दानशाला में बैठे-बैठे देखा कि बेडियों से बाँधा हआ. मलिन मखवाला व्यक्ति तलारक्षकों द्वारा डुगडुगी पीटते हुए ले जाया जा रहा है। भैमी ने पूछा-भद्रों! इसके द्वारा क्या विनाश किया गया है, जिससे कि इस प्रकार की कठिन वध प्रक्रिया इसकी की जा रही है। उन्होंने कहा-इसने चन्द्रवती के रत्नकरण्डक को चराया है। जीवित होकर भी मरे हुए के समान इसको मारा जा रहा है। वह दीन चोर भैमी को प्रणाम करके बोला-देवी! मेरी रक्षा करो। हे शरणागत वत्सल! मैंने तुम्हारी शरण स्वीकार कर ली है। यमदूत की तरह ये मेरे जीवन को ग्रहण करने के लिए उद्यत हैं। हवा से आहत ध्वजा की तरह मेरा हृदय कम्पित होता है। भैमी ने कहा-भद्र! अकृत्य करके भी अब मत डरो! क्योंकिन जीवयति किं वैद्यो महारोगेऽपि रोगिणम् । महारोग से ग्रसित रोगियों को क्या वैद्य जीवित नहीं करता? इस प्रकार बोलकर अपने शील के प्रभाव से उस चोर के बन्धन छूरी से काटने के समान तोड़ डाले। तब सघन बन्धनों को लता की तरह तोड़ते हुए उद्धारक को देखकर तलारक्षक शीघ्र ही बिखरकर घर को लौट गये। उस आश्चर्य से राजा भी वहाँ बुलाये हुए की तरह पहुँच गया। विस्मय से दीर्घ हुए नेत्र कमलों के साथ उस धार्मिका को राजा ने कहा-सरल भाव से की गयी चोर की रक्षा युक्त नहीं लगती। क्योंकि राजधर्मो ह्यसौ शिष्टपालनं दुष्टनिग्रहः । राजधर्म ही शिष्ट के पालन व दुष्ट के निग्रह में सक्षम होता है। आत्मरक्षार्थी लोग राजा को कर देते हैं। उसी धन से तस्कारादि के विनिग्रह पूर्वक लोगों की रक्षा की जाती है। अगर कृत कृपा द्वारा राजा चोरों का निग्रह न करे, तो आकाश व भूमि पर बरसने वाले के समान स्थिति वाले जल की तरह स्वेच्छापूर्ण स्थिति राजा की भी हो जायगी। भैमी ने कहा-हे तात! अन्यायी ही शरणार्थी होता है, और वह यहाँ अपने ही न्याय से पुनः उस शरणार्थी की रक्षा करता है। मैंने दया से प्रेरित होकर ही यह कार्य किया है। अतः इस अपराध को तात द्वारा क्षमा प्रदान की जाय। तब इस उपरोध से राजा ने चोर को छोड़ दिया। चतुरता पर आरूद व्यक्ति के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। तस्कर भी वैदर्भी के प्राणदान से, विमुक्त होकर, उसे माता के समान प्रतिदिन वन्दन करने लगा। एक दिन भैमी ने उस चोर से पूछा-हे भद्र! तुम कौन हो? किसके पुत्र हो? कहाँ से आये हो? उसने कहा-तापस प्रतिबोध से बने हुए तापसपुर नगर में वसन्त नामक सार्थवाह है। मैं उसका पिङ्गल नामक दास हूँ। जुए आदि व्यसनों में आसक्त होकर मैंने जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर दिया। उसी स्वामी के घर में से घर का सर्वस्व चुरा लिया। पर वह चुराया हुआ धन दूसरे चोरों द्वारा मुझसे छीन लिया गया। स्वामी के साथ द्रोह करके अर्जित किया हुआ द्रव्य भोगा भी कैसे जा सकता था! अतः हे माता! मैं यहाँ आकर राजा की सेवा करने लगा। दरिद्रता इन्सान को सब ओर से घिसती है। एक बार चन्द्रवती के आभरणों की करण्डिका देखकर मेरा चित्त चलित हो गया। 59
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy