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विमल की कथा
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तब राजा विमल व सहदेव को हाथी पर चढ़ाकर अपने प्रासाद को लाया, और राज्य लेने के लिये विनती करने लगा। तब विमल ने उसे निम्नाङ्कित उत्तर दिया।
राज्य लेने से एक तो खर कर्म करना पड़ते हैं तथा दूसरे परिग्रह वृद्धि होती है। इसलिये हे राजन् ! पाप-मूल राज्य के साथ मुझे काम नहीं। तब सहदेव को कुछ उत्सुक समझ कर उसको राजा ने हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, देश, नगर आदि सर्वस्व आधा २ बांट कर, स्वाधीन किया । तथा कमल सम्पन्न सरोवर की भांति कमला (लक्ष्मी) से परिपूर्ण एक धवल-प्रासाद राजा ने उसको दिया, और विमल को उसकी अनिच्छा होते हुए भी नगर सेठ का पद दिया ।
तदनन्तर सहदेव तथा विमल ने मिलकर अपने माता पिता आदि का योग्य आदर सत्कार किया। पश्चात् विमल वहां रह कर जिनधर्म का पालन करता हुआ काल व्यतिक्रमण करने लगा। परन्तु सहदेव राज्य में राष्ट्र में और विषयों में अतिशय लीन होकर नवीन कर प्रचलित करने लगा। पुराने कर बढ़ाने लगा। तथा लोगों को सख्ती से दंड देने लगा । वैसे ही पापोपदेश देने लगा। अनेक अधिकरण बढ़ाने लगा। दुश्मनों के देश तोड़ने लगा (भंग करने लगा) इत्यादि अशुभ ध्यान में फस गया । उसे देखकर विमल एक वक्त इस प्रकार कहने लगा।
हे भाई ! हाथी के कर्ण के समान चपल राज्यलक्ष्मी के कारण अपनी नियम शृखला का भंग कर कौन पाप में प्रवर्तित होता है। हे भाई ! अग्नि में प्रवेश करना उत्तम, सर्प के मुख के विवर में हाथ डालना अच्छा तथा चाहे जिस विषम रोग की पीड़ा उत्तम, परन्तु व्रत की विराधना करना अच्छा नहीं ।