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कीर्तिचंद्र राजा की कथा
इस प्रकार लोकप्रियता रूप चतुर्थ गुण का वर्णन किया ।
अब अकरता रूप पंचम गुण को व्याख्या करने की इच्छा करते हुए कहते हैं:
कूरो किलिट्ठमावो, सम्मं धम्मं न साहिउ तरह । इय सो न इत्थ जोगो, जोगो पुण होइ अक्कूरो ॥१२॥ अर्थ- क्रू र याने क्लिष्ट परिणामी होवे वह धर्म का सम्यक् प्रकार से साधन करने को समर्थ नहीं हो सकता- इससे वैसे पुरुष को इस जगह अयोग्य जानना चाहिये परन्तु जो अक र हो उसी को योग्य जानना चाहिये।
क्रूर याने क्लिष्ट परिणामी अर्थात् मत्सरादिक से दूषित परिणाम वाला जो होवे वह सम्यक् रीति से याने निष्कलंकता से (अथवा सम्यक् निष्कलंक ) धर्म का साधन करने याने आराधन करने में समर्थ नहीं हो सकता, समरविजयकुमार के समान । - इस हेतु से ऐसा पुरुष यहां अर्थात् इस शुद्ध धर्म के स्थान में योग्य याने उचित माना ही नहीं जाता, अतएव जो अक्र र हो उसको योग्य जानना-- (मूल में 'पुण' शब्द है वह एवकारार्थ है) कीर्तिचंद्र राजा के समान । कीर्तिचन्द्र नृप तथा समरविजयकुमार की कथा इस प्रकार है ।
जैसे आरामभूमि बहुशाखा-बहुतसी शाखायुक्त वृक्षों से सम्पन्न, पुन्नाग शोभित और विशाल शालवृक्षों से विराजमान होती है वैसी ही बहु साहारा-बहुत से साहूकारों से युक्त, पुन्नाग याने उत्तम पुरुषों से विराजमान और विशाल शाल-किले से शोभित चंपा नामक नगरी थी । वहां सुजन रूप कुमुदों के वन