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विनयंधर की कथा
अतिशय करुणा आदि गुणों से युक्त परोपकारी और पाप परिहारी था । वह अति उदार होने से प्रतिदिन मनोज्ञ भोजन किसी भी योग्य पात्र को देकर के उसके अनन्तर ही स्वयं भोजन करता था। वह एक दिन बिन्दु नामक उद्यान में कायोत्सर्ग की प्रतिमा धर कर खड़े हुए मानों मूर्तिमय उपशम रस ही हो ऐसे सुविधिनाथ को देख संतुष्ट हो निम्नानुसार उनकी स्तुति करने लगाः__ कैसा तेरा अंग विन्यास है, कैसी तेरी लोचन में लावण्यता है, कैसा तेरा विशाल भाल है, कैसी तेरे मुख-कमल की प्रसन्नता है ? अहो ! तेरी भुजाएँ कैसी सरल हैं । अहो ! तेरे श्रीवत्स की कैसी सुन्दरता है । अहो ! तेरे चरण कैसे भव-हरण हैं। अहो ! तेरे सर्व अंग कैसे मनहर हैं । बार-बार इन प्रभु को देखकर हे लोगों ! तुम तुम्हारे रंक नेत्रों को तृप्त करो, जिससे त्रिभुवन तिलक देवाधिदेव जल्दी जल्दी परमपद दे। ___इस प्रकार शुद्ध श्रद्धावान् हो परिपूर्ण भक्ति-राग से जिनेश्वर की स्तुति कर उनकी ओर बहुमान धारण करता हुआ वह चर वैतालिक अपने घर आया । अब उसके पुण्यानुबंधि पुण्य के उदय से भोजन के समय उसके घर श्री सुविधिनाथ जिनेश्वर भिक्षार्थ पधारे । उनको भली-भांति देखकर वैतालिक ने पूर्ण आनन्द से रोमांचित होकर उत्तम आहार वहोराया ।
साथ ही सोचने लगा कि मैं आज धन्य-कृतार्थ हुआ हूँ और आज मेरा जीवन सफल हुआ है जिससे कि भगवान् स्व-हस्त से मेरा यह दान ग्रहण करते हैं। ___ इतने ही में आकाश में विकसित मुख वाले देवताओं ने " अहो सुदानं - अहो सुदानं " ऐसा उद्घोष किया व देवदुन्दुभि बजाई तथा लोगों के चित्त को चमत्कार कारक गंधोदक