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प्रकृति-सौम्य गुण पर
उसे सुख पूर्वक सेते थे । उसकी संगति के योग से बहुत से लोगों ने प्रशम गुण प्राप्त किया, कारण कि संगति ही से जीवों को गुण दोष प्राप्त होता है, इसीसे कहा है कि-सन्ता लोह के ऊपर यदि पानी रखें तो उसका नाम भी नहीं रहेगा । कमलिनी के पत्र पर वहीं जल-बिन्दु मोती के समान जान पड़ेगा। स्वाति नक्षत्र में बरसते समुद्र की सीप में पड़ कर वही जल-बिन्दु मोती होता है। इसलिये उत्तम मध्यम व अधम गुण प्रायः संगति ही से होते हैं।
क्षमा गुण को मुक्ति की प्राप्ति का प्रधान गुण मान कर शुभचित्त विजय जो किसी को कलह करता देखता तो यह वचन कहता । हे लोकों ! तुम परम प्रमोद में मग्न होकर क्षमावान बनो और किसी भी प्रकार से क्रोध न करो कारण कि क्रोध भवसमुद्र का प्रवाह रूप ही है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ के नाशक और सैकड़ों दुःखों के कारण भूत कलह को, जैसे राजहंस कलुषित जल का त्याग करते हैं, वैसे ही हे भव्यो! तुम भी त्याग करो। किसी के भी दोष प्रगट कर देने की अपेक्षा न कहना उत्तम है, और दूसरे चतुर मनुष्य ने भी उस विषय को पूछने की अपेक्षा न पूछना उत्तम है। .
इस प्रकार प्रतिदिन उपदेश देते विजय श्रेष्टि को उसका ज्येष्ठ पुत्र पूछने लगा कि-हे पिताजी ! तुम सबको यही बात क्यों कहते हो ? विजय बोला कि हे वत्स ! मुझे यह बात अनुभव सिद्ध है. तब ज्येष्ठ पुत्र बोला कि वह किस प्रकार ? तो विजय बोला कि- वह बात कहने से न कहना अच्छा । पुत्र के बहुत आग्रह करने पर श्रेष्ठि ने कहा कि- पूर्वकाल में तेरी मां ने मुझे विषम कुए में गिरा दिया था। यह बात मैं ने उसे भी फिर नहीं कही और उसीसे सब अच्छा ही हुआ है. इसलिये तूने भी यह