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नागार्जुन की कथा
स्थलों में जाकर जिनेन्द्र के बिम्बों को वन्दन किया करता था तथा उसने पादलित सूरि के नाम पर पालीताणा नामक नगर बसाया । तथा गिरनार के समीप घोड़ा जा सके वैसी सुरंग बनवाई तथा नेमीश्वर भगवान की भक्ति से उसने दार मंडप नामक चैत्य आदि बनवाये ।
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इस प्रकार गृहस्थ धर्म का पालन कर तथा जिन-शासन की उन्नति करके वह इस लोक व परलोक के कल्याण का पात्र हुआ इस भांति लब्धलक्ष्य गुण वाले नागार्जुन योगी को प्राप्त हुआ फल भलीभांति सुन कर समस्त गुणों में प्रधानभूत इस गुण म हे भव्य जनों, प्रयत्न कर्ता होओ।
इस प्रकार नागार्जुन की कथा पूर्ण हुई है ।
लब्धलक्ष्यपन रूप इकवीसवां गुण कहा । अब निगमन करते हैं
re इगवीस गुणा सुयानुसारेण किंचि वक्वाया । अरिहंत धम्मरयणं घितु एएहि संपन्ना ||२९||
मूल का अर्थ - इन इकवीस गुणों का शास्त्र के अनुसार किंचित् वर्णन किया (क्योंकि) जो इन गुणों से युक्त होता है, वह धर्मरत्न ग्रहण करने के योग्य होता है । ये पूर्वोक्त स्वरूप वाले इकवीस गुण श्रुतानुसार अर्थात् शास्त्र में जिस भांति प्राप्त होवे उसी भांति (संपूर्णतः तो नहीं किन्तु ) स्वरूप से तथा फल से प्ररूपित किये । किस लिये सो कहते हैं :
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