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परहितार्थकारिता गुण पर
प्राणी वध, मारण, अभ्याख्यान आदि अनेक पाप करता है । जिससे जोरावर अत्यधिक दारुण कर्मजाल उपार्जन करके अनुपम भव रूप भयंकर अरण्य में दुःखी होकर भटकता है । इसलिये हे भव्यो ! जो तुमको श्रेष्ठ पद प्राप्त करने की इच्छा हो तो कोप को छोड़कर शिवपद के सुख को प्रकट करने वाले जिनधर्म में उद्यम करो।
यह सुन सर्वगिल गुरु के चरण में नमन कर बोला किकनकरथ राजा पर का कोप आज से मैं छोड़ देता हूँ व इस धर्मकुमार में जो कि-मेरे गुरु समान है मेरी हृढ़ भक्ति होओ । इतने में वहां गड़गड़ करता एक विशाल हाथी आ पहुँचा उसको अचानक आता देख कर उक्त पर्षदा को अतिशय क्षोभ हुआ । इतने में कुमार ने धीरज पूर्वक उसे पुचकारा तो हाथी ने अपनी सूड संकोच कर शान्त हो पर्षदा सहित गुरु की प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया। ___ अब यतीश्वर ने इस हाथी को कहा कि-हे महायक्ष ! तू भीम का अनुसरण करके क्या यहां हाथी के रूप में आया है ? व तू ही काली के भवन से इस राजकुमार को अपने पौत्र कनकरथ को बचाने के लिये यहां लाया है, और अब उसको तेरे पौत्र के नगर को ले जाने के लिये तैयार हुआ है । यह सुन कर वह हाथी के रूप को संहरने लगा।
वह देदीप्यमान अलंकार वाला यक्ष का रूप धारण कर बोला कि-हे ज्ञानसागर मुनीश्वर ! आप का कथन सत्य है । तथापि मुझे बताना चाहिये कि पूर्व में मैंने सम्यक्त्व अंगीकार किया था, किन्तु कुलिंगी के संसर्ग से मेरे मन रूप भवन में आग लगी। जिससे मेरी निर्मल सम्यक्त्व रूप समृद्धि जल कर भस्म हो गई। इसीसे मैं वन में ऐसा अल्प ऋद्धिवान यक्ष हुआ हूँ।