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सत्कथ गुण वर्णन
इस प्रकार उनका बाहिरी शरीर अग्नि में जलते हुए और भीतर शुभ भाव रूप अग्नि से कर्म रूप वन को जलाते हुए राजर्षि पुरंदर अंतगड केवली हुए।
अब वनभुज के किये हुए इस महा पाप की उसके परिजन को खबर पड़ने पर उन्होंने उसे निकाल बाहर किया । तब वह अकेला भागता हुआ रात्रि को अंधेरे कुए में गिर पड़ा । वहां नीचे तली में गड़े हुए मजबूत खैर के खीजे से उसका पेट बिंध गया, जिससे वह दुःखित हो रौद्र ध्यान करता हुआ सातवीं नरक में गया।
जिस स्थान में पुरंदर राजर्षि सिद्ध हुए उस स्थान पर देवों ने हर्षित होकर गंधोदक बरसा कर अति महिमा करी । और बंधुमती ने भी अति शुद्ध संयम पालकर निर्मल ज्ञान दर्शन पाकर परमानन्द को प्राप किया ।
इस प्रकार गुणराग से पुरन्दर राजा को प्राप्त हुआ वैभव जानकर हे गुणशाली भव्यो ! तुम आदर करके तुम्हारे हृदय में गुणराग ही को धारण करो।
इस भांति पुरन्दर राजा का चरित्र संपूर्ण हुआ। इस प्रकार गुणरागित्व रूप बारहवें गुण का वर्णन किया अब सत्कथ नामक तेरहवें गुण का अवसर है । उसको उसके विपर्यय याने असत्कथपन में होने वाले दोषों का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं:नासइ विवेगरयणं-असुहकहासंगकलुसियमणस्स । धम्मो विवेगसारु त्ति-सकहो हुन्ज धम्मत्थी ॥२०॥