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गुणरागित्व गुण पर
___अब सिद्ध पुरुष बोला कि, तू इस प्रकार बोलता हुआ रहस्य के योग्य ही है, कि जिसके चित्त में इतना गुणराग विद्यमान है। कारण कि-गुण के समूह से तमाम पृथ्वी को धवल करने वाले गुणी पुरुष तो दूर रहे परन्तु जो गुण के अनुरागी होते हैं वे भी इस जगत् में विरले ही मिलते हैं । कहा है कि,
निर्गुणी गुणी को पहिचानता नहीं और जो गुणी कहलाते हैं वे ( अधिकांश ) अन्य गुणियों पर मत्सर रखते दृष्टि में आते हैं, इसलिये गुणो व गुणानुरागी ऐसे सरल स्वभावी जन तो विरले ही होते हैं। ___ यह कह बहुमान पूर्वक वह उसे उक्त विद्या देकर कहने लगा कि-हे भद्र! इस वन में एक मास पर्यन्त शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन कर आठ उपवास पूर्वक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में इस विद्या का साधन करना। तब अत्यन्त उग्र उपसर्गों के अन्त में मणिकंकण खटखटाती व अति देदीप्यमान कान्तियुक्त रूप धारण कर प्रगट हुई यह विद्या तुझे सिद्ध होकर कहेगी कि-वर मांग । ___ तदनन्तर इसे स्थिर करने के लिये एक बार पुनः एक मास पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करना । इतना कह वह सिद्ध जाने लगा। तब कुमार ने निवेदन किया, मेरे मित्र इस ब्राह्मण को भी यह महाविद्या देते जाइए । तब जगत् के प्राणियों को आनन्द देने वाला भूतानन्द बोला।
हे कुमार ! यह ब्राह्मण वाचाल, तुच्छ व निंदक है अतएव गुणराग से रहित होने से इस विद्या के बिलकुल योग्य नहीं। क्योंकि गुणराग रहित गुणियों को निन्दा करने वाले निर्गणी मनुष्य को विद्या देना मानो सर्प को दूध देने के समान दोष बढ़ानेवाला होता है । तथा अपात्र को दी हुई विद्या उसको कुछ