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गुणरागित्व गुण वर्णन
मध्यस्थ सौम्यदृष्टित्व रूप ग्यारहवां गुण कहा । अब बारहवां गुणरागित्व रूप गुण कहते हैं । गुणरागी गुणवंते, बहुमन्नइ निग्गुणे उवेहेइ । गुणसंगहे पवत्तइ, संपत्तगुणं न मइलेइ ॥ १९ ॥ ..
अर्थः-गुणरागी पुरुष गुणवान जनों का अत्यादर करता है. निर्गुणियों की उपेक्षा करता है । गुणों का संग्रह करने में प्रवृत्त रहता है, और प्राप्त गुणों को मलीन नहीं करता। ___टीकार्थः-धार्मिक लोगों में होने वाले गुणों में जो सदैव प्रसन्न रहता हो वह गुणरागी है । वह पुरुष गुणवान् यति श्रावकादिक को बहुमान देता है याने कि उनकी ओर प्रीतिपूर्ण मन, रखता है । वह इस प्रकार कि ( वह सोचता है कि) अहो ये धन्य है इनका मनुष्य जन्म सफल हुआ है, इत्यादि । तो इस पर से तो यह आया कि निर्गुणियों की निन्दा करे, क्योंकि-जब यह कहा जाय कि देवदत्त दाहिनी आंख से देख सकता है तब बाई से नहीं देख सकता है यह समझा ही जाता है। ___ कोई कोई कहते हैं कि शत्रु में भी गुण हों तो वे ग्रहण करना चाहिये और गुरु में भी दोष हों. तो कह देना चाहिये परन्तु ऐसा करना धार्मिक जन को उचित नहीं, इसीलिये कहते हैं किःवैसा पुरुष निर्गुणियों की उपेक्षा करता है, याने कि स्वतः संक्लिष्ट चित्त न होने से उनकी भी निंदा नहीं करता है । जिससे वह ऐसा विचार करता है किः- सत् या असत् पर-दोष कहने व सुनने में कुछ भी गुण प्राप्त नहीं होतो । उनको कहने से बैर बुद्धि होती है
और सुनने से कुबुद्धि आती है. 1. ..: अनादि काल से अनादि दोषों से वासित हुए इस जीव में जो एकाध गुणं मिले तो भी.महान् आश्चर्य मानना चाहिये।