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सौम्यदृष्टित्व गुण पर
अब शुद्ध धर्म के लिये वह अनेक दर्शनियों को पूछता-पूछता एक ग्राम में भिक्षा के समय आ पहुँचा। वहां वह एक अव्यक्त लिंग धारी की मढ़ी में उतरा । उसने अतिथि के समान उसको स्वीकार किया। पश्चात वह भिक्षा मांगने गया। क्षण भर में वह. मिक्षा लेकर वापिस आया व दोनों ने उसको खाया। पश्चात अवसर पाकर उस ब्राह्मण ने उक्त लिंगी को धर्म का तत्त्व पूछा !
लिंगी बोला कि- हे भद्र ! सोम नामक गुरु के हम यश और सुयश नामक दो शिष्य हैं । गुरु ने हमको “ मिष्ट भोजन" इत्यादिक तत्त्व का उपदेश किया है। परन्तु उसका अर्थ न बता कर गुरु परलोक वासी हो गये हैं। इससे मैं अपनी बुद्धि से इस प्रकार गुरु वचन को आराधना करता हूँ।
मंत्र और औषधियां बताने से मैं लोकप्रिय होगया हूँ। जिससे मुझे मिष्ठान्न मिलता है और इस मढ़ी में मुख पूर्वक सोता हूँ। ____ तब सोमवसु विचार करने लगा कि - अरे! यह तो गुरु के कहे हुए तत्त्व का बाहरी अर्थ ही समझा हुआ जान पड़ता है । परन्तु गुरु का अभिप्रायः ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि मंत्र व
औषधि आदि में तो अनेक जीवों का घात होता है, तो फिर परमार्थ से आत्मा लोक प्रिय हुई कैसे मानी जा सकती है ? तथा मिष्ठान्न तो प्रायः जीवों को गाढ़-रस-गृद्धि कराता है व उससे तो संसार बढ़ जाता है अतएव परमार्थ से वह कटुक ही है।
वैसे ही चन्द्रमा के प्रकाश समान निर्मल शील को धारण करने वाले और इन्द्रियों को वश में रखने वाले ऋषियों को एक स्थान में स्थिर रहकर सुख-शय्या करने का प्रतिषेध किया हुआ है।