________________
नमोत्यु णं समणस्स भगवओमूहावीर का पू. आगमोद्धारक-आचार्य-श्रीअनिन्दागिरीश्वरायो नान
____ आचार्यप्रवर-श्रीशांवरEिRY धर्मरत्न-प्रकरणम् ।
( अनुवादसहित ) जैन प्रथकारों की यह शैली है कि प्रारम्भ में मंगलाचरण करना चाहिये. अतः टीकाकार प्रथम सामान्य मंगल करते हैं:ॐ नमः प्रवचनाय ।
टीकाकार का खास मंगलाचरण. सज्ज्ञान-लोचन-विलोकित-सर्वभावं निःसीम-भीम-भवकाननदाहदावम् । विश्वाचितं प्रवस्भास्वरधर्मरत्न
रत्नाकरं जिनवरं प्रयतः प्रणौ म ॥१॥ सम्यग् ज्ञानरूप चक्षुद्वारा सर्वपदार्थों को देखने वाले, निःसीम भयंकर संसाररूप वन को जलाने के लिये दावानल समान, जगपूज्य, उत्तम और जगमगाते धर्मरूप रत्न के लिये रत्नाकर (समुद्र) समान, जिनेश्वर की (मैं) सावधान (हो) स्तुति करता हूं।
अब टीकाकार अभिधेय तथा प्रयोजन बताते हैं:विशेष अर्थवाले और स्वल्प शब्दरचनावाले श्री-धर्मरत्ननामक शास्त्र को, स्वपर के उपकार के हेतु, शास्त्र के अनुसार किचित् वर्णन करता हूँ।