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लज्जालुत्व गुण पर
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एक समय राजमहल में स्थित उस कुमार को कोई योगी हाथ जोड़, प्रणाम करके इस प्रकार विनय करने लगा कि - हे कुमार ! मुझे आज कृष्ण अष्टमी की रात्रि को भैरव स्मशान मंत्र साधना है, इसलिये तू उत्तर साधक हो । कुमार उसके अनुरोध से उक्त बात स्वीकार कर हाथ में तलवार ले उक्त स्थान पर पहुँचा ।
पश्चात् योगी ने वहां पवित्र होकर कुण्ड में अग्नि जलाई और उसमें लाल कनेर तथा गुग्गुल आदि होमने लगा । उसने कुनार को कहा कि यहां सहज में अनेक उपसर्ग होंगे उसमें तूने भयभीत न हो, हिम्मत रख कर क्षण भर भी गफलत न करना । तत्पश्चात् वह अपनी नाक पर दृष्टि लगाकर मंत्र जपने लगा, व कुमार भी उसके समीप हाथ में तलवार लेकर खड़ा रहा।
इतने में एक उत्तम विद्यावान विद्याधर वहां आया । वह अपने कपाल पर हाथ जोड़कर कुमार को कहने लगा- कुमार ! तू उत्तम सत्त्ववान है। तू शरणागत को शरण करने लायक है. तथा अर्थियों के मनोवांछित पूर्ण करने में तू कल्पवृक्ष समान है । अतएव मैं जब तक मेरे शत्रु गर्विष्ट विद्याधर को जीतकर यहाँ आऊं, तब तक इस मेरी स्त्री को तू पुत्री के समान संभालना ।
कुमार होशियार होते हुए भी किं कर्तव्य विमूढ़ हो गया । इतने में तो वह विद्याधर शीघ्र वहां से उड़कर अदृश्य हो गया । इतने में तो वहां हाथ में करवत धारण किये हुए होने से भयंकर लगता, तलवार व स्याही के समान कृष्ण वर्ण वाला, गु'जे के समान रक्त नेत्र वाला, वैसे ही अट्टहास से फूटते ब्रह्मांड के प्रचंड आवाज को भी जीतने वाला और "मारो, मारो, मारो” इस प्रकार चिल्लाता हुआ एक राक्षस उठा ।
वह योगी को कहने लगा कि- रे अनार्य और अकार्यरत !