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आसन कौन से हैं, क्रम क्या है, किन साधनाओं से यह ध्यान पा सकता है, ध्यान आने के बाह्य लक्षण कैसे होते हैं. ध्यान टूटने पर क्या करना चाहिये, इत्यादि विषयों पर सम्पूर्ण समझाइश इस शास्त्र में दी गई है।
दूसरी तरह इस ग्रन्थ की विशेषता देखे तो जीवन में मन बहुत काम करता है। अनादि संस्कारों में वृद्धि या ह्रास और भवान्तरों में अच्छे बुरे संस्कारों की परम्परा मन तैयार करता है। सुख दुःख ज्यादातर मन की कल्पना पर ही जीते हैं। शुभ अशुभ कर्मबन्ध या कर्मक्षय मन के आधार से होता है। मोक्ष-मार्ग का प्रारम्भ मन की स्वच्छ दृष्टि से शुरू होता है। धर्म का आधार मन के उपयोग ( व जागृति ) पर है। दूसरे के साथ के व्यवहार में हमारा मन यदि भारी रहे तो कठिनाई लगती है और मन यदि हलका हो ता अच्छा लगता है। मन अनुकूल को प्रतिकूल तथा प्रतिकूल को अनुकूल लगा देता है... इस तरह मन का कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा है।
- यह मन कैसे विकल्प, झुकाव तथा ध्यान में चढता है तो कुसंस्कारों की वृद्धि और परम्परा बढे, तैयारी हो, दुःख ही दुःख लगे, पापकर्म का बन्ध और पुण्यकर्म का नाश हो, भारी धर्मकष्ट भोगने पर भी मोक्षमार्ग पर स्थान नहीं मिलता, धर्मक्रिया करने पर भी धर्म नहीं होता, अन्यों के साथ के 64वहार में कठिनाई का अनुभव हो, और बात बात में प्रतिकूलता आ खड़ी हो, प्रत्येक बात मे मन को कमी का अनुभव हो। इससे उलटे मन कैसे झुकाव, विकल्प या ध्यान में चढे कि कुसंस्कार नाश हो, सुसस्कार गढे जायं, पाप नाश हो, पुण्य वृद्धि हो, मोक्षमार्ग पर स्थान मिले, आन्तरिक धर्मपरिणति निश्चित हो, अन्यों के साथ के व्यवहार में