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________________ कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्द प्रयुज्यते ।। अर्थात् कृष्णादि द्रव्यों के सहयोग से स्फटिक की तरह आत्मा का जो परिणाम होता है उसमें लेश्या शब्द का प्रयोग होता है। स्फटिक उज्जवल होता है, परन्तु उसके पीछे काला, मीला आदि जैसे वर्ण का कागज कपड़ा रखा जाय, वैसे रंग से रंगा हुआ वह स्फटिक दिखता है। वैसे ही यहां कृष्णादि द्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा वैसे परिणाम वाला याने तीव्र मन्द शुभाशुभ अध्यवसाय वाला होता है। इस परिणाम को 'लेश्या' कहते हैं। श्रेणिक राजा अन्तिम समय आराधना मग्न होने से शुभ अध्यवसाय वाले थे, परन्तु अन्त में कृष्ण लेश्या में चढ गये। अलबत्त, वे क्षायिक समकिती थे, इससे उन्हें अति उग्र अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं थे, तब भी उनसे कुछ हलके अप्रत्यख्यानीय कषाय को कृष्ण लेश्या का बल मिला। इससे उनके दिल के अध्यवसाय भयंकर रूप से बिगड़ गये और वे मर कर नरक में गये। लेश्या दो तरह की हैं-शुभ तथा अशुभ। उस में अशुभ तीन प्रकार से -कृष्ण, नील तथा कापोत । शुभ भी तीन प्रकार की हैंतेजो लेश्या, पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या । इसमें आर्त ध्यान रौद्रध्यान का सेवन करने वाले को अशुभ लेश्या होती है। परन्तु रौद्र ध्यानी को यह कृष्णादि लेश्या अतिशय संक्लेश वाली अर्थात् क्र र भाव वाली होती हैं। तो आर्त्तध्यानी को वे लेश्या उतनी संक्लेश वाली नहीं पर उससे मन्द कृष्णादि तीनों लेश्या होती है। ये लेश्या कौन करवाता है. ? . . वैसे वैसे कर्म का उदय वह लेश्या करवाते हैं। अलबत्ता मन वचन काया के योग सहयोगी कारण जरूर हैं, इसीलिए लेश्या
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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