SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२ ) उत्तर - यहां यह समझने लायक है कि प्रारम्भिक जोव को अभी बिलकुल निस्पृह भाव को दशा प्राप्त नहीं हुई अत: इच्छाएँ तो रहेंगी। इसमें यदि मोक्ष को अर्थात् सर्व संगरहितता का इच्छा नहीं हो, तो भौतिक सुख के संग को इच्छा रहा करेगी। इससे वह कभी भी ऊंचा नहीं उठ सकता। वह तो मोक्ष की इच्छा रखे तभी उसके मन में यह भाव उठेगा कि मोक्ष मुझे इसलिए चाहिए कि संसार में जो जन्म मरणादि की बार-बार की पीड़ा तथा जीव को इससे कर्म की तरफ से होने वाली दुर्दशा है वह मोक्ष में नहीं है। पान्तु यह संसार जगत के जड़ चेतन का संग होगा वहां तक नहीं छूट सकता और मोक्ष नहीं मिल सकता। अत: मुझे ये समस्त संयंग व मंग नहीं चाहिये। इस तरह मोक्ष की इच्छा के पाछे सर्न संग रहितता की इच्छा खड़ी होती है। इससे सभी भौतिक सुखों के संग से बचने की इच्छा हो जाती है। यह इच्छा जितनी बलवान होगी, उतना ही अहिंसा, सत्य .. अपरिग्रह आदि का पालन जोरदार बनेगा; जिसके उत्कृष्ट होने से आत्मा में उसके 'स्वाभाविक' हो जाने से बाद में मनको यह इच्छा नहीं रहती कि मैं यह साधना करुं जिससे मुझे मोक्ष मिले। फिर वह साधना स्वाभाविक हो जाती है जिससे वहां मोक्ष को इच्छा भी नहीं रहती। दूसरे 'न प्रयोजनं विना मन्दोपि प्रवर्तते' न्याय के अनुसार अज्ञान मनुष्य भी प्रयोजन बिना, किसी उद्देश्य की इच्छा के बिना कोई प्रवृत्ति नहीं करता, तो सज्ञान अभ्यासी आराधक मोक्ष के प्रयोजन से, मोक्ष की इच्छा से ही प्रवृत्ति करे यह स्वाभाविक है। यह भी एक हकीकत है कि प्रवृत्ति में चिकीर्षा याने करने की इच्छा कारणभूत होती है। अत: मोक्षार्थ प्रवृत्ति में मोक्ष की इच्छा जरूरी है। . पुन: मोक्ष की इच्छा. का अर्थ असंग या नि:संगता की इच्छा
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy