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________________ करने में एक और मेरा बाह्य आत्मस्वरूप अधिक विकृत होता है और दूसरी ओर मेरी साधना और मेरे धर्म स्थान को हानि होती है। तो ये द्वषादि क्यों किये जाय ? तथा (३) वर्तमान समय में सम या विषम पदार्थ या प्रसंग प्राप्त हो तो उसमें कुछ नया नहीं है। संसार ऐसा ही है कि उसमें बिना सोचा या इच्छा बिना भी विचित्र घटना होती रहती है।' इत्यादि । भविष्य अवस्थाका मनन : (१) वर्तमान अनिष्ट पर कषाय करने से भावी के लिए अशुभ कर्म बंध, संक्रमणादि तथा कुसंस्कार खड़े होते हैं। (२ फिर वस्तु या व्यक्ति मेरे कषाय करने पर भी न सुधरे, तथा वह अपने रास्ते ही काम करता रहे तो कषाय करना बेकार रहेगा। (३) सामने वाले व्यक्ति को मेरे कषाय करने से कषाय को उदीरणा होगी, जिससे बिचारे के अशुभ कर्म बंध बढेंगे। (४) मुझे भी भविष्य में ये कर्म कुसंस्कार उदय में आने से उस समय आत्मा की परिस्थिति विषम बनेगी तथा नये पाप उत्पन्न करेगी। .. इत्यादि। १. सम्यक सहन करने वाले को आत ध्यान नहीं ___इस तरह अनेक रूप से तत्त्व को पकड़ कर जगत की त्रिकाल अवस्था का मनन करे वह मुनि कहलाता है। वेदना या बीमारी आने पर वह सोचे; 'इसका न आना मेरी इच्छा या मेरे हाथ की बात नहीं है; परन्तु मेरे अपने पूर्वोपार्जित कर्म के उदय का परिणाम ही यह वेदना है। कारण हो तो कार्य होता है। कर्म थे तो रोग आता ही' इस तरह बीमारी तथा कर्म वस्तु के स्वभाव पर मन लगावे। इसी से वह मध्यस्थ रह सकता है, रहता है। न शरीर के राग में खिंचाता है न बीमारी के प्रति द्वष में। इससे उसे वेदना का चित्त-संताप नहीं होता, आर्त ध्यान नहीं होता। वह तो पूर्व महर्षि का यह वचन बराबर नजर समक्ष रखे कि -
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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