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________________ ( २९९ ) न कसाय समुत्थेहि य वाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं । ईसा - विसाय - सोगाइएहिं झाणोवगयचित्तो ॥१०३॥ अर्थ:- ध्यान में लाए हुए चित्त वाली आत्मा कषायों से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुखों ईर्ष्या, खेद, शोक आदि से पीड़ित नहीं होती। ध्यान का प्रत्यक्ष फल विवेचन : चित्त जब शुभ ध्यान में लगा होता है, तो उसे ईर्ष्या विषाद शोक आदि किसी दुख की पीड़ा नहीं रहती। ईया आदि ये मानव दुख हैं। किसी अन्य मनुष्य का उदय, उन्नति या बढती देखकर मत्सर होता है, असहिष्णुता उठती है, मन जल उठता है, कहता है. 'इसे यह क्यों मिला? यह कैसे व क्यों चढ गया ?' ऐसे चित्त जलता है, यही ईा है। 'विषाद' याने खेद, बेचैनो । जरा सा भी अनिच्छित हुआ कि चित्त को ग्लानि व बेचनी उद्वंग हो गया। शोक याने इच्छित वस्तु नष्ट होने पर या अनिच्छित वस्तु सिर पर पड़ने से दीनता आती है । 'हाय' होती रहती है। दिल रंक गरीब बनकर विलाप किया करता है, जलता रहता है । यहां शोकादि पद में आदि शब्द है। इससे हर्ष उन्माद जुगुप्सा भय आदि भी समझे जायं। ये ईर्ष्या-क्रोधादि कषाय में से उत्पन्न होते हैं। बढ़ती पाने वाले अन्य व्यक्ति को देखकर जीव को शांति नहीं रही, क्रोध भभक उठा, इससे फिर उस पर चित्त जलता है, ईर्ष्या, मत्सर असूया होती है। इसी तरह किमी वस्तु का लोभ है, तो उसके बिगड़ने या नष्ट होने पर चित्त बेचैन बन जाता है, खेद विषाद होता है। इसी तरह इच्छित वस्तु के प्रति लोभ ममता प्रासक्ति होने से वह बन आने पर हर्ष उन्माद होता है। मूल में
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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