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________________ ( २७२ ) निव्वाणगमण काले केवलिणो दरनिरुद्ध जोगस्स | सुहुम किरिया नियहिं तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ ८१ ॥ तस्सेव य सेलेसी - गयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स | वोच्छिन्नकिरियप्पाडवा ज्झाणं परमसुक्कं ॥ ८२ ॥ अर्थ :- जब मोक्ष प्राप्ति का समय निकट हो, तब केवलज्ञानी को (मनो योग वचन योग का सर्व निरोध करने के बाद) काययोग आधा निरुद्ध हो जाने पर सूक्ष्मकाय क्रिया रहने पर सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती नामक तीसरा ध्यान होता है । उनको ही शैलेशी पाने पर मेरु की तरह बिलकुल स्थिर ( निश्चल आत्म प्रदेश ) होने पर व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । आत्मा भी अलग प्रतीत नहीं होता । ) ऐसा ध्यान भी पूर्वगत श्रुत के आलम्बन से अर्थात् श्रुत में कथित पदार्थ पर होता है । इसे 'एकत्व वितर्क अविचार ध्यान' कहते हैं । वह अभेद से अर्थ या व्यंजन (शब्द) के विचरण रहित याने संक्रमण रहित ध्यान है । (३-४) तीसरे चौथे शुक्ल ध्यान का समय अब किस अवस्था में तीसरा चौथा शुक्ल ध्यान होता है वह कहते हैं- विवेचन : पहले दो शुक्ल ध्यान करने के बाद उनके अन्त में केवल ज्ञान प्राप्त होता है, आत्मा सर्वज्ञ बननी है। वहां उन्हें १३वां 'सयोगीकेवली' गुणस्थानक प्राप्त होता है । अब बाद का लगभग सभी आयुष्यकाल इस गुणस्थानक पर बिताते हैं। सिर्फ जब आयुष्यकाल की समाप्ति होने वाली हो और मोक्ष पाने की अत्यन्त निक
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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