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________________ ( २६३ ) को पाता है । (मागधी भाषा में पहसी विभक्ति में 'अ' प्रत्यय होने से से अर्थात् वह जैसे 'समणे भगवं महावीरे') अलेसी याने अलेशी अर्थात् लेश्या रहित । १३ वे गुणस्थानक तक लेश्या होती है, क्योंकि लेश्या को योगान्तर्गत पुद्गल के साथ सम्बन्ध है और यहां १३वें तक ही योग विद्यमान हैं। फिर १४वें गुणस्थानक में शैलेशो होने से योग नहीं है, तो लेश्या भी नहीं है । इससे वह आत्मा अलेशी याने प्राकृत भाषानुसार 'अलेसी' बनता हैं । (४) 'सेलेसी' याने शील का ईश । यह अर्थ इस तरह हुआ । प्राकृत भाषा में शोलेश को 'सीलेश' कहते हैं अर्थात् शोल के स्वामी । १४वे गुणस्थानक पर इन्द्रिय, कषाय, अव्रत, योग तथा क्रिया, इन पांच आश्रत्रों में से एक भी आश्रव नहीं होता । सर्व प्रश्रवों का तिरोध याने सर्व संवर हो गया । निश्चयनय के अनुसार 'सर्व संवर' ही शील याने 'समाधान' है अर्थात् आत्म प्रदेशों के आत्मस्वभाव का सम्यक् आधान है, सम्यक् स्थापन है । आत्मा का मूलभूत स्वभाव सर्व आश्रव रहितता, सर्व संवर, स्थिरता ही शील है । शील के स्वामी ही शीलेश और शीलेश शब्द को स्व-अर्थ में, अपने अर्थ में 'अ' प्रत्यय लगने पर प्रथम स्वर 'शी' में से 'ई' की वृद्धि होने से 'शी' का 'शै' होता है । इससे शोलेश याने शैलेश । यह शैलेश की अवस्था याने शैलेशी । प्राकृत में उसे 'सेलेसी' कहते हैं । तात्वयं यह कि यहां 'सेलेसी' शब्द का अर्थ 'सर्व संवर की अवस्था' हुआ । इस शैलेशी अवस्था को प्राप्त यह सर्व संवर निष्पत्ति और मोक्ष होने का मध्यकाल, -पांच ह्रस्व अक्षर बोले जाये उतना समय, उतने समय तक ही शैलेशी अवस्था रहती है । ( फिर मोक्ष हो जाता है ! ) पांच ह्रस्व अक्षर अ इ उ ऋ लृ बोलने में जितना समय लगता है, मात्र उतना ही समय शैलेशी अवस्था का याने १४ गुणस्थानक का है ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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