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________________ ( २५८ ) प्रवृत्ति नहीं होती। अत: योग में मुख्य क्रिया नहीं किन्तु तदर्थ स्फुरित होने वाला आत्मवीर्य है प्रतः काययोग आदि आत्मा का ही गुणधर्म है । यह अलबत्ता औपाधिक है परन्तु इसमें आत्म-परिणाम हो विशेष है । इसीलिए यह काययोग आदि इ । 'आत्मा एक स्वतन्त्र वस्तु' होने का सबूत है। कारण यह कि भौतिककाया मे यह योग दिखाई नहीं देता। सारांश यह कि औदारिक आदि काया के सहारे स्कुरित होने वाला वीर्य तथा वोर्य का आत्मपरिणाम ही काययोग कहलाता है। (२) वचन योग याने क्या ? अब इस काय योग से एक कार्य मानो भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करने का हुआ, तो इन भाषा द्रव्य के गृहीत पुद्गलों को वचन रूप में परिणमित करके बाहर छोड़ना याने बोलना होता है। इस कार्य का प्रयत्न याने वीर्य-परिणाम ही वचन योग है । अर्थात् प्रौदारिकादि काय-व्यापार से याने काययोग से गृहीत वचनद्रव्य-वागद्रव्य-समूह की मदद से होने वाला आत्मा का वीयपरिणाम ही वचनयोग है। अर्थात् काययोग की मदद से गृहीत भाषा-पुद्गलों को भाषा के रूप में परिणमन कर के बाहर छोड़ने का याने बोलने का कार्य करने वाला आत्मपरिणाम ही वचनयोग है। यह कार्य भाषाद्रव्य के सहारे से स्फुरित होने वाला वोर्य करता है अत: वह वीर्यात्मक आत्मपरिणाम ही वचनयोग है। (३) मनोयोग याने क्या ? ___इस पर से यह समझा जा सकता है कि कुछ विचार करने के सिए पहले तो औदारिकादि काययोग से भाषावर्गणा की तरह मनो वर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं। फिर इस मनोद्रव्य के सहारे जो आत्मवीर्य स्फुरित हो कर उसे मन रूप में परिणमन कर के बाहर छोड़ता है, वह वीर्यपरिणाम ही मनोयोग है। इस
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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