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________________ ( २५४ ) की तरह जितवचन के ध्यान रूपा मन्त्र के सामर्थ्य वाला छद्मस्थ उस मन को त्रिभुवन में से क्रमशः संकुचित करते करते सीधे सिर्फ एक परमाणु पर ला कर स्थिर कर के फिर उस परमाणु पर भी नहीं रहने देते । किन्तु वहां से भी दूर कर देते हैं, यह युक्तियुक्त है । जिन केवलज्ञानी रूप श्रेष्ठ वैद्य फिर अचिन्त्य शैलेशीकरण के प्रयत्न से तीनों योगों को नष्ट कर देते हैं. यह भी युक्तियुक्त हैं । २. अग्नि संकोच का दृष्टांत : इसी तरह जैसे बहुत सी लकड़यों से बहुत बड़ी सी आग जल रही हो, उसमें से यदि लकड़े क्रमशः खींच लिये जायं, तो अग्नि कम होते होते अन्नमें अल्प लकड़ियें रहने से अग्नि उतने में ही केन्द्रित हो जावेगा । फिर इतनी लड़िय भी खींच ली जावें, तो अग्नि बिलकुल खतम हो जावेगा । इसी तरह मन भी दुःख दाह का कारण होने से अग्नि जैसा है । वह त्रिभुवन के विषय रूपी लकड़ियों पर अन्त्यत प्रज्वलित होकर दिल में महा दाह पैदा करता है । मन जितना ज्यादा विषयों में मिलता हैं, मिश्रित होता है, उतने ही राग, द्वेष या चिंता ज्यादा भभकते हैं । इससे जीव को खुत्र जलना पड़ता है। अब शुक्लध्यानी इन विषयों में संकोच करता हैं और संकोच करते करते एक परमाणुरूप विषयधरण पर्यन्त आ जाता है; अत: स्वाभाविक ही इतने पर ही मन स्थिर हो जायगा । फिर तो शैलेशीकरण के अचिन्त्य प्रयत्न से उस पर से भी मन को हटा लेने से वह मन रूप अग्नि विषय-रहित होने से शान्त हो जाय यह स्वाभाविक है। ३. पानी के ह्रास का दृष्टांत : जैसे कच्चे घड़े में पानी भरा हुआ हो, तो वह धीरे धीरे बाहर जमता जाकर ( निकलता जाने से ) क्रमश कम होता जाता है । अथवा अग्नि से गरम किये हुए लोहे के बर्तन में से पानी का क्रमशः ह्रास होता
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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