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________________ ( २५१ ) किसी तत्त्व के तिन में शंका जिज्ञासा होने से इन केवल त्रानी को प्रश्न पूछते हैं। तब ये केवलज्ञानी भगवन्त इस शंका जिज्ञासा के उत्तर स्वरूप जो विचारधारा आवश्यक होती है वैसी विचारधारा वाला मन बनाते हैं । इस के लिए मन का उप ोग है। ___मन क्या है ? जैसे वाणी क्या है ? भाषा-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उस उस भाषा के रू। में उनका परिणमन कर के छोड़ना याने बोलना; वैसे ही मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर के उनका मनरूप में परिणम न कर के छोडना हो मन है । केवलज्ञानी उत्तर के रूप में यह करते हैं, यह वह अनुत्तरवासी देव वहां बैठे बैठे अवधिज्ञान से देखते हैं और इस मन पर से अपना जवाब समझ जाते हैं । इस मन का यह निर्माण मनोयोग से होता है। इस तरह केवलज्ञानी को अपने चिंतन के लिए नहीं, किन्तु ऐसे किसी को उत्तर देने के समय मनोयोग करना पड़ता है, उसमें मन होता है। किन्तु जब मोक्ष पाने के अति निकट काल में मात्र ५ ह्रस्वाक्षर के उच्चार जितना समय बाकी हो, तब शैलेशी अवस्था आती है। इस शैलेशी की प्राप्ति होने के पहले के अन्तमुहूर्त काल में शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार अस्तित्व में आता है । इसमें वे मनोयोग का निरोध कर के अ-मना बनते हैं; साथ में वचनयोग-काययोग का भी निरोध करते हैं तब शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं, और इस अवस्था में शुक्लध्यान का चौथा प्रकार 'व्युपरत किया. निवृत्ति' ध्यान आता है। सारांश यह है कि शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकारों में से पहले प्रकार का ध्याता शलेशी के पहले के अन्तमुहूर्त में और दूसरे प्रकार का ध्याता शैलेशो में होता है । मनः संकोच - मनोनाश के दृष्टांत यहां प्रश्न होता है कि 'छद्मस्थ आत्मा त्रिभुवन में भटकने वाले मन को संकुचित कर के अणु पर धारण करते हैं वह किस
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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