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________________ ( २४७ ) तिहुयण विसयं कमलो संसिविउमगो अणु मि छउ मत्थो। झायइ सुनिप्पकंपो झागं अपणो जिणो होइ ॥७॥ अर्थ:-छद्मस्थ (असर्वज्ञ) अात्मा त्रिलोक के विषयों में से क्रमशः (प्रत्येक वस्तु के त्याग पूर्वक) मन को संकुचित करके परमागु पर स्थापित कर अतीव निश्चल बन करके शुक्लध्यान ध्यावे । (वह पहले दो प्रकार का होता है । अन्तिम दो प्रकार में श्री जिन वीतराग सर्वज्ञ मन रहित होते हैं । जिनशासन में मुख्य वस्तु है। क्योंकि जिनशासन कर्मक्षय के लिए ही है और कषायत्याग से ही कर्मक्षय सुलभ याने सरल वनता है। अतः कर्मक्षय के सामर्थ्य की वजह क्षमादि याने कषायत्याग जिनमत में प्रधान वस्तु है। इसकी प्रधानता इसलिए कि चारित्र अकषाय रूप है और चारित्र से अवश्य मोक्ष होता है । इसलिए क्षमा प्रादि का पालम्बन साधन के रूप में रखे वही शुक्लध्यान में चढ सकता है, अन्य नहीं । इस तरह से शुक्लध्यान के बारे में 'ग्रालंबन' द्वार का विचार हुग्रा। शुक्लध्यान किस तरह ध्यावे ? अब क्रम द्वार का समय है। इसमें शुक्लध्यान के पहले दो प्रकार में क्रम पहले धर्मध्यान का विचार करते वक्त क्रमविचार में बताया है । उसमें जो विशेष है वह यहां कहते हैं:विवेचन : छद्मस्थ जीव याने ज्ञानावरण आदि प्रावरण में रहे हुए असर्वज्ञ जीव १४ पूर्व में कहे हुए सूक्ष्म पदार्थो के चितन पर शुक्लध्यान में चढ सकते हैं और उसके प्रथम दो प्रकारों का ध्यान
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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