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________________ ( २४५ ) स्वयं की बड़ाई करना, मुखमुद्रा या चाल आदि गर्व भरे बने....' इत्यादि फल उत्पन्न होने नहीं देना चाहिये । इस तरह उदयप्राप्त मान को निष्फल किया जा सकता है । - ३. माया के उदय को रोकना : इसमें भी पहले कहे गये कई विचार काम आते हैं। इसके अलावा भी यह सोचें:(१) माया संसार के भवों की जननी है । वह तो माता की तरह मेरे भवों को जन्म देगी । तथा मेरे दोषों का पोषण करेगी । (२) माया के सेवन में पीछे से पछताने का कम होता है, इससे इसमें सम्यकत्व का ही नाश हो जाता हैं । (३ माया से सगे स्नेही आदि अपने ही लोगों का विश्वास व प्रेम खोने का होता है । साथ ही लोकविश्वास भी खो देता है । (४) माया के कारण स्त्रीवेद या तिर्यंचगति का उपार्जन होने से नीचे गिरना पड़ता है । (५) महाशक्ति सम्पन्नों ने भी आपत्ति रोकने के लिए माया नहीं की, उससे बचाव नहीं किया, तो मैं क्यों माया करूं ? इससे मुझे क्या बहुत बड़ा बचाव होने का लाभ मिलने वाला था ? (६) माया तो शराब जैसा व्यसन है, करते करते बढती जाती है । .. आदि सोचकर माया को और माया के फलस्वरूप बाह्य माया वाले शब्द आदि को रोका जा सकता है । - ४. लोभ कषाय का त्याग : इसके लिए भी उपरोक्त कई विचार काम आ सकते हैं । इसके अलावा भी सोचें :(१) लोभ, राग, ममता, तृष्णा, लालसा, आकर्षण, आसक्ति, लंपटता आदि में से किसी भी रूप में जागता है, रहता है और वह आत्मा का शुद्ध गुण नहीं किन्तु विकार है, रोग है, उपाधि है तो मैं उसे क्यों अपनाऊं ? (२) अनन्त काल से इसी लोभ से ही अनेकानेक दोषों का पोषण उससे संसार लम्बा और लम्बा होता गया है । ऐसे को पहचान मूल पाये में रहे हुए होता रहा है और
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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