SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३९ ) मन वचन काया से एकाग्र बने; इत्यादि प्रभु का विनय करता हो । इसी तरह मुनि महाराज का विनय करे। उनके आने पर खडा होना, जाने पर साथ में कुछ दूर पहुँचाने जाना, उनको आसन देना, उनको सुखशाता पूछना, उनके वचन को 'तहत्ति तथास्तु' कह कर स्वीकारना आदि साधु विनय करता हो । (५) इसी तरह श्रुतशील संयम से सम्पन्न हो । 'श्रुत' याने सामायिक सूत्र से लेकर १४वें पूर्व 'बिन्दुसार' तक के आगम । 'शील' याने व्रत नियमादि चित्त-समाधि के साधन । ( व्रत नियम समधि सदाचार का मन पर बोझ न हो तो निरंकुश मन इष्ट विषयों की प्राप्ति न होने से या कम होने से असंतुष्ट, अस्वस्थ रहता है तथा कषायों की छूट होने से भी अस्वस्थ असमाहित रहते हैं; अतः शील जरूरी है ।) वैसे ही 'सयम' याने जीवहिंसादि पापों का त्याग । इन श्रुतशील संग्रम में भाव से रक्त हो । उपरोक्त चिन्ह जहां दृष्टिगोचर हों, वह व्यक्ति धर्मध्यान में प्रवर्तित होता है, ऐसा समझा जा सकता है । अन्तर में धर्मध्यान बिना वह जिन-मुनि गुणप्रशंसा आदि करने का नहीं होता । इस पर से समझ में आ सकता है कि जो इस प्रशंसादि के बदले निंदा आदि हो या मोह वश भक्त आदि की प्रशंसा या सन्मान आदि चलता हो, तो वहां आर्त्तध्यान चलता है ऐसा माना जायगा । इसी तरह ये श्रद्धा गुणकीर्तन आदि चिन्हों में प्रवृत्त ज्यादा हो, तो धर्मध्यान सरल हो जाता है । प्रश्न- धर्मध्यान के स्वामी ( अधिकारी ) तो पहले अत्रमत्त मुनि आदि को कहा तो धर्मंध्यान उन्हें होता है। फिर यहां जो निसग श्रद्धा, देवगुरु - विनय आदि लिंग कहे, वे तो समकिती और देशविरति श्रावक तथा प्रमत्त मुनि को भी होते हैं । तो क्या उन्हें धर्मध्यान हो सकता है ? -
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy