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________________ ( २०० ) मनन्त मुक्त जीव समा जाते हैं। कोई भी जीव किसी अन्य जोव को बाधा नहीं करता। ये सिद्ध अरूपी होने से ही उन पर अब कर्म, शरीर आदि किसी का भी लेप नहीं लगता। अरूपी जीव पर संमार में तो इसलिए लेप लगता है कि जोव के ऊपर अनादिकाल से कम के लेप का प्रवाह चला आ रहा है। इससे लेप पर लेप लगने में विरोध नहीं आता वहां आत्मा रूपारूपी है। फिर सर्वथा अरूपी हो जाने पर भी लेप लगता ही नहीं । ___ आत्मा की इस असली अरूपिता का ममत्व हो जाय तो फिर (१) उसका उसे महत्त्व लगने से जड़ रूपी पदार्थ उसे 'कुछ नहीं' लगेंगे। कहां मेरी शुद्ध निर्मल अक्षय अजर अमर अरूपिता और कहां जड़ के परिवर्तित होने वाले नाशवन्त बेहूदे रूप रस आदि ? इसमें मैं क्यों मिल जाऊं? इसे किस लिए महत्त्व देकर यह सुन्दर यह खराब ऐसे भाव करू ? इस तरह जड़ के प्रति उदासीनता उत्पन्न करने वाली यह अरूपिता की ममता है। (२) रूपी जड़ के लेप के कारण शुद्ध अरूपिता ढंक गई है। साथ ही अनन्त सुख भी दब गया हैं। अतः रूपी जड़ तो आत्मा का दुश्मन है। तो दुश्मन के माल विविध रूप आदि में अच्छा बुरा क्यों लगे ? दुश्मन के माल के प्रति तो नफरत व उदासीनता ही होनी चाहिये । इस तरह रूपी के सामने स्वकीय भव्य अरूपिता का चिंतन करे। ५. स्वकर्म कर्तृत्व : ऐसा शरीर से भिन्न यह आत्मा संसार में है, वहां तक ज्ञानावणादि कर्म का कर्ता है। कर्म बन्ध के कारणों का सेवन करे अत: स्वाभाविक ही कर्म बांधता है। ये कारण जैसे कि हिंसादि पाप को त्याज्य न मानना आदि मिथ्यादृष्टि, पाप की छुट होना अविति, राग-द्वेषादि कषाय, तथा हिंसादि पापों का आचरण स्पष्ट दिखता है। कारण ही तो कार्य होगा ही, यह स्वाभाविक है । अतः वद कार्य याने कर्म आत्मा स्वयं
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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