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________________ ( १८१ ) आकाश तो है पर गतिसहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य नहीं है, अतः बाहर गति नहीं है यह मानना पड़ता है । अन्यथा परमाणु आदि अनन्तानन्त काल में अनन्तानन्त आकाश के भीतर कहीं के कही बिखर जाने से वर्तमान व्यवस्थित जगत जो दिखाई देता है, वह किस तरह होता ? इसी तरह अधर्मास्तिकाय की साधक दलील यह है कि जैसे अशक्त मनुष्य लकड़ी के सहारे खड़ा, आधा खड़ा या खड़े पैरों से ऊकडू बैठ कर स्थिर रह सकता है, वैसे ही लोक में जीव या पुद्गल भिन्न भिन्न स्थिति में स्थिर रह सकते हैं, वह किसके सहारे ? कहना ही पड़ेगा कि अधर्मास्तिकाय के सहारे । जीव द्रव्य को साधक युक्ति में तो अनेकानेक हैं। उदा० (१) 'मैं' ऐसा संवेदन कौन करता है ? देह से भिन्न आत्मा पर देह नहीं । यदि ऐसा न होता तो जहां 'मैं ऐसा मूर्ख नहीं कि ज्यादा खाकर मेरा शरीर बिगाड़', यह सोचा या कहा जाता है वहां यह सोचना चाहिये था कि 'मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं कि ज्यादा खाकर मैं बिगडू ।' (२) इस तहर 'मैं रोग से या घाव से पीड़ित हूं, पर समता व समाधि से सुखी हूं' यह भाव शरीर कैसे कर सकता है ? शरीर तो रोग से पीडित व दुःखी हो है सुखी कहां है ? भिन्न आत्मा ही, यह ख्याल कर सकता है । (३) इसी तरह, सबसे प्रिय कौन ? शरीर नहीं पर आत्मा । इसीलिए तो मौके पर घोर अपमान या बेइज्जती होने पर दुःख से छूटने के लिए जीव अपने पैसों आदि को जाने देता है, यहां तक कि अपने शरीर का भी नाश कर देता है । इसी तरह आत्मा की साधक अनेकानेक युक्तियाँ सोची जा सकती हैं । (vi) पर्याय : छः द्रव्यों के उत्पाद स्थिति भंग ( नाश ) आदि पर्यायों का चिंतन करना । पर्याय याने अवस्था | इसमें छहों द्रव्यों में सर्वव्यापी समान पर्याय याने अवस्था तो उत्पत्ति स्थिति
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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