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पृ० | पं०
२४४ | १०/२३ ३/२०
२४९
२५०
२५१
२५२
ܕ
१
४
६
८
२२
६
२०
१९
२५७
२५९
२६१
२६३
२६७ ११
१९
२७० १
२७१
२३
२७२
२०
२७५
१७
१५/२६
२९४
ܐ
२८५ ११
२८७
२१
२३
४
( ०१ )
अशुद्ध
एव / शभा
लकों / हा
सिया
त्रानी
उपग
रू.....
ही
शलेशी
वसे सो
जान
काया
वीय
लिस
पहसी....''
लोकान्तर
दानों
पई वमिय
करने का
बननी
प्रयोग
प्रयाग / यागो
अपने
वे / वाले
हुआ''''पर स
व मं
शुद्ध
एवं शोभा लोकों / यहां
सिद्ध
ज्ञानी
उपयोग
रूप
वही
शैलेशी
वसेसो
जाने
'काययोग'
वीर्य
लिए
पहली.... 'ए'
लोकान्त
दोनों
प्पईवमिव
करके
बनती
योगी प्रयोग/योगों
अपनी
वह / वाला
रहा.... पर
कर्म