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( १७३ ) अनुभव होता है। क्योंकि इसमें दृष्टि सोधी पीड़ा के मूलभूत (असली) कारण कर्म के विपाक पर जाता है।
४-संस्थान विचय
अव चौथे प्रकार 'संस्थान विचय' का वर्णन करते हैं:
जिण दे सेयाइ लक्खण संठाणःऽऽसण विहाणमाणाई । उपाय ठिइ भंगाइपज्जा जे य दव्याणं ।। ५२ ॥ पंचत्थिकायमइयं लोगपसाइणिदणं जिणक्खायं । णामाइभेय विहियं तिविहमहानाय भेयाई ।। ५३ खिइवलय दीव सागर नग्यावमाण भवणाइ संठाणं । दो साइइट्ठाणं निययं लोगाइ विहाण ।। ५४ ।। उपयोग :लक्खण मणाइणिहणमत्यंतरं सरीगो । जीवमरूविं कारि भोयं च सयस्म कम्मस्स । ५५ ।। तस्स य सकम्मणियं जम्माइजलं कसायपायालं । वसणसय सावयमण मोहावतं महाभीमं ॥ ५६ ॥ अण्णाण मारुएरिय संजोगविजोग वीइसंताणं । संसार सागर मणोरपार मसुह विचितेजा ॥ ५७ ॥ तस्य य संतरणसह सम् इंपणसुरक्षण अणग्धं । णाणमययण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥ ५८ ।।