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गोतम महाराज ने वीर प्रभु से पूछा : 'हे भगवन्त ! चौदहपूर्वी एक घड़े में से हजारों घड़े बनाने में समर्थ है ?' प्रभु ने कहा, 'हंता गोयमा ! प्रभूणं चोद्दसपुत्वी घडाओ घडसहस्सं करित्तो।' चौदह पूर्वधर 'प्रभु' याने समर्थ है। यह सामर्थ्य कितना अधिक विशाल है ?
यह तो जिनवचन के इस लोक के सामर्थ्य की बात हुई । तो परलोक में चौदहपूर्वी का जन्म जघन्य से छठे लांतक देवलोक ":' में और :त्कृष्ट स अनुत्तर देवलोक के सर्वार्थसिद्ध विमान में होता १ अथवा वह सर्व कर्मक्षय कर के मोक्ष में जाता है ।
(१०) महाविषय : 'अहो जिनवचन कैसा महान याने सकल द्रव्यादि विषय वाला है !' कहा है, 'दव्वओ सुयनाणी उवउत्तो सम्वदन्वाई जाणई।' अर्थात् श्रुतज्ञानी द्रव्यों पर चित्त का उपयोग करे तो सर्व द्रव्यों को जानता है, जान सकता है। अलबत्ता केवलज्ञानी की तरह धर्मास्तिकायादि द्रव्यों को वह प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। किन्तु केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान ने इन समस्त द्रव्यों का प्रतिपादन किया है इससे उनके वचन पर से सर्वं द्रव्यों को जान सकता है, इसी तरह उसके कितने ही पर्यायों को भी जान सकता है।
(११) निरवद्य : 'अहो जिनवचन कसे निरवद्य व निर्दोष हैं।' वचन के ३२ दोष होते हैं । अत्युक्ति, पुनरुक्ति, तुच्छ शब्द इत्यादि ३२ दाषों से रहित जिनवचन होता है। ऐसे जिनवचन किसी भी पाप का आदेश उपदेश नहीं देते। इसलिये भी वे निष्पाप निरवद्य वचन हैं।
अथवा निरवद्य' शब्द को 'चिंतन करे' क्रियापद के साथ उसका विशेषण समझा जा सकता है, अर्थात् 'निरवद्य रीति से चिंतन करे'। यह अर्थ करने पर 'निरवद्य' का अर्थ 'निर्दोष रूप से