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________________ ( १३९ ) भूतों के लिए हित स्वरूप! भूत याने प्राणी उनके हित या पश्यरूप। वह भी दो प्रकार से-(i) जीवों को पीड़ा न होने के रूप में और (ii) उनका कल्याण होने के रूप में। इसमें (i) जगत के एकेन्द्रिय तक के जीवों के बारे में जिनाज्ञा है कि 'सर्वे जीवा न हन्तव्याः' अर्थात किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना। ऐसी जिनाज्ञा का लन करने वाले समस्त जीवों को अभयदान देते हैं। उन्हें लेश मात्र भी पीड़ा नहीं देते। तो जिनाज्ञा कैसी सुन्दर जीवहितकर ! र (ii) जिनाज्ञा द्वारा फरमाये हुए रत्नत्रयी के मार्ग पर चलने वाले बहुत से जीव संसार की विडम्बना से छुट कर सिद्ध मुक्त हो गये। इस दृष्टि से भी जिनाज्ञा जीवों को कैसी सुन्दर कल्याणकर व हितकर ! इस तरह जिनाज्ञा की भूत-हितता सोचे, चिंतन करे । (8) भूत भावना :- पुनः सोचे कि 'जिनाज्ञा कितनी सून्दर भूत की भावना करने वाली है।' इसके भी दो अर्थ हैं : (i) भूत याने सद् भूत. सत्य भावन याने विचारना सोचना। जिनवचन प्रत्येक पदार्थ का अनेकांत दृष्टि से विचार करने वाला होने से सत्य ही सोचता है । एकांत दर्शन वस्तु के मात्र एक अंश का विचार कर के उसी पर आधार रख कर आंशिक धर्म का स्वीकार करता है, परन्तु साथ ही उसी वस्तु में सचमुच में रहे हुए अन्य उससे विरुद्ध दिखने वाले अंश का अपलाप-इन्कार करते हैं । अत: वे असत्य भावन सिद्ध होते हैं, तब जिनवचन अनेकांत दर्शन होने से भूत भावन याने सत्य विचार करने वाला होता है। अथवा (ii) 'भूत' याने जीव उनकी भावना याने वासना, वासितता। जिनवचन भूत भावना है याने भव्य जीवों द्वारा भावित की जाने वाली वस्तु है । कहा है कूरावि सहावेणां राग विसवसाणुगावि होऊणं । भाविय जिण वयण मणा तेलुक्क सुहावहा होंति ॥
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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