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________________ ( १३६ ) 'विपाक विचय' है । इसमें शुभाशुभ कर्मों के विपाक का विचार करते हैं । यदि कर्मों के विपाक पर अटल विश्वास हो कि 'ऐसे ऐसे कर्मों से ऐसा ऐसा फल होता है।' तो इस विश्वास के कारण (i) कहीं कर्म विपाक के चिंतन में तन्मयता आने से धर्म ध्यान होता है और (ii) दूसरी तरफ सुख में अहंत्व और दुःख में क्षुद्रता, गुस्सा, हाय (दुःख) आदि रुके जिससे दुर्ध्यान रुकता है । (४) तो धर्म ध्यान का चौथे प्रकार 'संस्थान विचय' में १४ राजलोक का तथा धर्मास्तिकायादि षट्द्रव्यों का स्वरूप परिस्ि आदि का चिंतन करते हैं । यह सोचने से विराट का दर्शन होता है और उससे अज्ञानता मूढता रुकती है जिससे फिर उसके निमित्त होने वाला आर्त्त ध्यान आदि भी रुक जाय तो उसमें क्या आश्चर्यं ? बस धर्मध्यान के चारों प्रकार में जीवन के चार महान साध्य बताये हैं । जिनाज्ञा बहुमान, हिंसादि पापों का तिरस्कार, कर्म विपाक का अटल विश्वास तथा विराट दर्शन । अब धर्म ध्यान के पहले प्रकार 'आज्ञा विचय' का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं: - विवेचन : धर्मं ध्यान के पहले प्रकार 'आज्ञाविचय' में जगत के दीपक समान जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का चिंतन करना होता है । अर्थात् यह जिनाज्ञा कैसी कैसी विशेषता वाली है उसका ध्यान करना होता है । यहां इसके लिए इन दो गाथाओं में जिनाज्ञा के १३ विशेषण बताये हैं । अलबत्ता इसमें प्राकृत भाषा के कारण अथवा शब्द महिमा से एक के अनेक अर्थ होते हैं, इससे वे १३ से भी ज्यादा विशेषण बन जाते हैं । इनमें से प्रत्येक विशेषण के अनुसार जिनाज्ञा का ध्यान करना होता है । वह निम्न प्रकार से किया जाता है: --
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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