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________________ ( १२६ ) श्रावणाई वायण पुच्छणपरिदृणाचिता । सद्धम्मावस्सयाई सामाइयाई च ॥ ४२|| अर्थ :- (धर्मं ध्यान में चढने के लिए निर्जरा के लिए कराने वाली सूत्र की ) वाचना में याने पठन पाठन, शंकित में पृच्छा, पूर्व पठित का परावर्तन, अनुचितन, अनुस्मरण और चारित्र धर्म के सुन्दर अवश्य कर्तव्य, सामायिक पडिलहेन आदि साधु समाचारी उसका आलंबन है । नियम नहीं है । तब भी इतना सच है कि ध्यान का अभ्यास करने वाले को अपने तीनों योगों की स्वस्थता रहे तथा ध्यान भंग न हो वैसे देश काल आसन रखना चाहिये । यही बात सारांश में पुनः कहते हैं: विवेचन : जीव किसी भी देश आदि में केवलज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। अतः ध्यान के लिए देश काल शरीर चेष्टा अवस्था आसन अमुक ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । आगम में कहा भी ऐसा नियम नहीं रखा। यदि नियम है तो इतना ही कि ध्यान करने में मन वचन काया के तीनों योग समाहित-स्वस्थ होने चाहिये और इस तरह प्रयत्नशील रहना चाहिये कि जिससे योगों का समाधान हो, स्वस्थता रहे । यहां तीनों योगों का समाधान याने स्वस्थता कहा है उसका अर्थ यह है कि कोई भी धार्मिक प्रवृत्ति प्रतिक्रमणादि कायिक प्रवृत्ति या स्वाध्यायादि वाचिक प्रवृत्ति अथवा तत्त्व चिंतन या अनित्यादि भावना चिंतनादि मानसिक प्रवृत्ति स्वस्थता से शास्त्र विधि के अनुसार चलती हो उसमें ध्यान हो सकता है और पूर्व में कहा
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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