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________________ । १२२ ) कालो वि सो चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहई । न उ दिवसनिसावेलाइ नियमणं झाइणो भणियं । ३८॥ अर्थ:- ध्यान करने वाले के लिए काल ऐसा होना चाहिये कि जिसमें योगस्वस्थता उत्तम प्राप्त हो। परन्तु दिन ही या रात्रि काला|द ही योग्य समय है, ऐसा नियम नहीं है । ऐसा तीर्थंकर गणघरो ने कहा है । इतना ही काफी नहीं है । किन्तु 'एकजातीय के ग्रहण से तज्जातीय दसरे का भी ग्रहण होता है।' इस न्याय से 'जोवोपरोध' शब्द से हिंसा जैसे असत्य, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह इत्यादि पाप भी संग्रहित होता है । अतः ऐसे पापों का जहाँ सेवन होता हो वह स्थान भी नहीं चाहिये। इसका भी कारण यही है कि योगी का हृदय पापघृणा वाला होने से दूसरों का पाप नजर समक्ष आते ही उन पापों के प्रति घृणा तथा पाप करने वाले जीवों के प्रति दया के असर वाला हो जाने की संभावना है और इस घृणा व दया के उठ आने से ध्यान भंग होता है। अतः ध्यान के योग्य स्थान ऐसे जीवहिंसादि पापरहित होना चाहिये । इस पर से यह सूचित होता है कि मुनि का दिल परिग्रहादि पापों के प्रति कैसा होना चाहिये । यह 'देश' की बात हुई। ध्यान के लिए काल ___ अब ध्यान योग्य 'काल' की बात कहते है :विवेचन : काल याने कलन, जिसमें गिनती हो अथवा काल याने कला समूह ढाई द्वीप समुद्र में सूर्य चंद्र की गति क्रिया से सूचित दिन आदि । 'कालो वि' में 'वि' अक्षर समानता बताने वाला है । ध्यान करने वाले के लिए जैसे देश योग्य होना चाहिये इतना ही, पर नाम
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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