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________________ ( ११८ ) अभ्यास किया जाता है कि तप के समय में आहार का विकल्प ही न उठे तथा पारणा करते समय निर्दोष तथा निश्चित अभिग्रह वाली भिक्षा न मिले तो तप समाधिपूर्वक आगे बढाने का सामर्थ्य हो। स्थिर कृतयोगी को चतुर्भगी:-इस ज्ञानभावनादि व सत्त्वभावनादि के रूप में याग का जिन्हें अच्छा अभ्यास हो गया हो वे कृतयोगी कहलाते हैं। स्थिर तथा कृतयोगी की चतुर्भगी इस प्रकार होती है: (१) कुछ स्थिर याने संघयण तथा धृति बल वाले हों, पर कृत योगी न हों । (२) कुछ स्थिर न हों, पर कृत योगी हों। (३) कुछ स्थिर भी और कृतयोगी भी होते हैं, एवं (४) अन्य कुछ स्थिर भी नहीं तथा कृतयोगी भी नहीं। इसमें तो तीसरा विकल्प यहां परिणत योगी के रूप में लेने का है। इसका कारण यह है कि यदि वह कृतयोगी होने पर भी स्थिर न हो, तो संघयण बल या धृति धैर्य के अभाव में किसी उपद्रव में ध्यान से डिग जाने की संभावना है । अत: जो स्थिर होने पर भी कृतयोगी न हो तो अभ्यास दशा में विपरीत संयाग आने पर विचलित होने की संभावना है, अतः दोनों गुण होने चाहिये। यह तो स्थिर तथा कृत योगी के दो गुणों की बात हुई । अथवा 'स्थिर किये हुए योग वाले' नामक एक ही गुण को भी लिया जा सकता है । इसका अर्थ है जिन्होंने बारबार योगाचरण करके योग को खूब परिचित किया हो वे स्थिर कृतयोगी। जैसे भोगी को भोग का परिचय होता है अर्थात् भोग को खास याद किये बिना ही जरा जरा में याद आ जाते हैं, इसी तरह इन्हें योग के खूब अभ्यास से प्राप्त अच्छे परिचय से योग स्वाभाविक बन जाता है। ऐसे गाढ परिचित तथा सुअभ्यस्त किये हुए योग वाले परिणत योगी कहे जाते हैं । ये पूर्वोक्त तीसरे विकल्प वाले ही होंगे। ऐसे अच्छी तरह अभ्यस्त योग वाले मुनि को स्थान का
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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