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३. निवेद : - 'नारक चारक सम भव उभग्यो, तारक जारणीने धर्म; चाहे नीकलवु, अर्थात् संसार को नरक तथा जेल के वैसा जान कर धर्मं को उससे तारने वाला समझ कर निकलना चाहे । संसार वास याने घर मे रहने को पुण्य बेचकर केवल पाप खरीदने का धन्धा समझे और दीघ दुर्गति का भ्रभरण समझ कर उस पर से नरकागार था जेल वास की तरह उससे बेचैन रहे। उसके प्रति अभाव. ग्लानि, अनास्था रहे और इसलिए ऐसे घर संसार से हमेशा निकल जाने की तीव्र इच्छा रहा करती है ।
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8. अनुकंपा : - ' द्रव्यथकी दुखियानी जे दया, धर्महीरणानी रे भाव' याने द्रव्य से दुःखी जीव के प्रति दया द्रव्यदया है तथा धर्म हीन के प्रति दया भावदया है ।' जीव के द्रव्य दुःख भूख प्यास, रोग, मारपीट आदि को दूर करने की इच्छा द्रव्य अनुकम्पा है; और भावदुःख जो पाप, भूल, कषाय, अज्ञान आदि, वे भाव दुःख हटाने की इच्छा भाव अनुकम्पा है। दूसरे के दुःखों के प्रति समवेदना हो तो ऐसी इच्छा हो कि दूसरे मेरा दुःख हटायें, ऐसा सोचता हूं, पर मुझे ऐसी इच्छा करने का अधिकार तभी होगा जब कि मैं दूसरों के दुःखों को शथाशक्ति मिटाने की इच्छा रखता होऊँ ।' पुनः पापी के प्रति द्वेष नहीं, दया करने जैसी है; क्योंकि वह बिचारा कर्म वश वैसा करता है और भव वृद्धि करके चौदह राजलोक में भटकता है । सव्वे जीवा कम्मवस चउदह राज भमंत'- सभी जीव कर्मवश चौदह राजलोक में भटक रहे हैं । बिचारे कर्म से परवश व्यक्ति पर द्वेष क्या करना उसे तो दुःख में सहायक बनकर उसे ऊंचा लाऊँ ।'
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५. आस्तिक्य याने 'जे जिन भाख्यु' ते नवि अन्यथा, एवो जे दृढ़ रंग ।' जिनेश्वर देव ने जो कुछ कहा है वह अन्यथा नहीं हो सकता, ऐसा दृढ़ रंग होना चाहिये । श्री जिन वितराग देव झूठ