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________________ । १०० ) दान चार प्रकार से विनय याने ८४४ =३२ प्रकार से विनय करना चाहिये। इस तरह से १८०+८४+६७+३२ = ३६३ वाद से मिथ्यादृष्टि होता है। उनकी तथा उनके मत की प्रशंसा नहीं करना चाहिये। जैसे 'अरे यह भाग्यशाली है ! वह भी तत्त्व-चिन्तक है....' आदि। (५) संस्तव याने मिथ्यादृष्टि का परिचय, संवास, समागम। यह भी त्याज्य है। कारण कि इससे उनकी मिथ्या प्रक्रिया का श्रवण, उनकी अज्ञान क्रिया का दर्शन आदि होते रहने से उसकी रुचि होने का भय है। इन शंकादि पांचों अतिचारों (दोषों) का त्याग और 'पसम' आदि ५-५ गुणों का अभ्यास करते रहने से दर्शन भावना होती है । प्रश्रमादि ५ गुण : १. प्रश्रम'=परिश्रम, स्त्रपर शास्त्र में परिश्रम से तत्त्वबोध में कुशल होना । कहा है कि - 'सपरसमयकोसल्लं थिरयाजिणसासणे पभावणया । आययणसेव भत्ती दंसणदीवा गुणा पंच ॥ अर्थ :-स्वपर शास्त्र कुशलता, जिन शासन में स्थिरता, प्रभावना, आयतन सेवा और भक्ति ये दर्शन को उज्ज्वल करने वाले ५ गुण हैं। २. स्थिरताः -अर्थात्: जैन शासन पर अविचल श्रद्धा; वह भी ऐसी कि बड़ा देवता, बड़ा वादी या मायाजाल करने वाला भी डिगा न सके।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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