SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८२ ) काणस्स भावणादेसं कालं तहासविसेसं । आलेवणं कर्म झाइयव्वयं जे य भायारो ||२८|| ततोऽणुप्पेहाथो लेस्सा लिंगं फलं य धम्मं फाइज्ज मुणी तग्गयजोगो त अर्थ :- ध्यान की भावना ', देश, काल, आसन, आलंबन, क्रम', उद्द ेश्य° (ध्येय) या ध्यान का विषय, ध्याताप, अनुप्रेक्षा, लेश्या", लिंग" तथा फल १२ को जानकर मुनि उसमें चित्त लगाकर धर्मध्यान करे । उसके बाद शुक्ल ध्यान करना चाहिये । I नाऊणं । सुक्कं ॥ २९ ॥ रोक्त कोई लिंग दिखाई दे तो अन्तर में रौद्रध्यान होने का समझकर उसे रोक देना चाहिये और उसके लिए बाहर के इन लिंगों लक्षणों से उलटा मार्ग लेना चाहिये । उदा० दूसरे की आफत देखकर अपने मन में दुख लगाना, हमदर्दी दिखाना, प्रार्थना करना 'बिचारे की आपत्ति मिटो ।' आदि । यह रौद्रध्यान के बारे में विचार हुआ । धर्म ध्यान अब यहां धर्मंध्यान का वर्णन करने की बारी आने से, ग्रन्थकार उसका निरूपण करने की इच्छा से उसका व्यवस्थित प्रतिपादन करने के लिए धर्मध्यान के सम्बन्ध में १२ द्वार, १२ मुद्द (Points) बताते हैं । फिर प्रत्येक के विषय की स्पष्टता करते हुए धर्मं ध्यान विस्तार सहित तथा व्यवस्थित रूप से समझाई जावेगी I आगे शुक्ल ध्यान के विचार के लिए भी ये ही १२ द्वार रहेंगे । धर्म ध्यान के १२ द्वार अब १२ द्वारों के नाम बताते हैं: --
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy