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________________ ( ७६ ) को रौद्रध्यान हुआ। अत: चित्त यदि बहुत राग द्वेष या मोह से वासित हो जाय, घिर जाय तो फिर उस विषय के हिसा, झूठ, चोरी, संरक्षण के क्रू र चिंतन में ही मन के तन्यम होने की सम्भावना है और इससे रौद्रध्यान आ खड़ा होता है। अत: उससे बचना हो तो इस तीव्र राग, द्वेष, मोह को रोके रखना चाहिये । सानुबन्ध कर्म से संसार वृद्धि यह अच्छी तरह सोच समझ लेना चाहिये क रौद्रध्यान सामान्यतः संसार की वृद्धि करने वाला है और खास तौर से नरकगति के पापों का सर्जन करने वाला है। संसार वृद्धि अर्थात् भवों की परम्परा । यह सानुबन्ध पाप कर्म के योग से होती है । 'सानुबन्ध कर्म' याने क्या? यहां खुशी से जो दुष्कृत्य किये जाते हैं, उससे जो अशुभ कर्म खड़ेहोते हैं वे ऐसे होते हैं कि आगे के भव में उनका उदय होने पर नई पाप बुद्धि उत्पन्न होकर नये दुष्कृत्य किये जायं, नये अशुभ कर्म बांधे जायं, तो वे पूर्व के कर्म अनुबन्ध (परम्परा) वाले याने सानुबन्ध कर्म कहे जाते हैं । ऐसे कर्म दुःख तो देते ही हैं, पर साथ में पापबुद्धि, नये पाप और उससे भवों की परम्परा का सजन करे वे सानुबन्ध कर्म । ऐसे सानुबन्ध कर्म चित्त के तीव्र संक्लेश वाले भावों से बांधे जाते हैं । रौद्रध्यान में तीव्र संक्लेश ही होता है, इससे उनसे बांधे जाने वाले सानुबन्ध कम द्वारा भव परम्परा का सर्जन होना, संसार की वृद्धि होना यह स्वाभाविक है।। विशेष रूप से रौद्रध्यान नरकगति की जड़ है। जड़ है तो वृक्ष सलामत है। रौद्रध्यान पर नरकगति में वेदना देने वाले कर्मों का पेड़ उगता है। व्यक्त उत्कृष्ट दुःखों वाली गति नरकगति है तथा व्यक्त उत्कृष्ट अशुभ ध्यान रौद्रध्यान। इन दोनों का कार्य कारण भाव है। उत्कृष्ट अशुभ ध्यान से उत्कृष्ट अशुभ गति, अत: रौद्रध्यान से नरकगति ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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