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परिशिष्ट-१ अविरत = असंयत गुणस्थान तक के जीव। अनुभाव = अविरति, प्रमाद, कषाय आदि। अर्थान्तर = अर्थ यानी ध्यान के विषय द्रव्य, पर्याय। द्रव्य और पर्याय के चिन्तन का पारस्परिक संक्रमण। अनुप्रेक्षा = कर्मागम के फलस्वरूप हुए दुःख, संसार की अशुभरूपता, जन्ममरण रूप भवसंतान, चेतन-अचेतन की नश्वरता आदि का बार-बार चिन्तन । अंकन = तप्त लौह शलाकाओं से दागना। आगम =आचार्य परम्परा से आगत मूल सिद्धान्त सूत्र । आज्ञा = उपदेश का अर्थ या अभिप्राय, जिन शासन । आमरण दोष = जीवन में कभी पश्चात्ताप नहीं करना। आकार = पुद्गल की रचना का रूप, वस्तु का संस्थान। उत्सन्न दोष = किसी एक रौद्र ध्यान में बहुलता से प्रवृत्त होना। उपदेश = सूत्र के अनुसार किया गया कथन । गम = चतुर्विंशति दण्डक आदि, मन वचन काय के विभिन्न दण्ड। छद्मस्थ = संसारी व्यक्ति, अल्पज्ञ। ताड़न = सिर, छाती आदि पीटना। देशविरत = संयतासंयत जीव। नय = अनेक धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का विवेचन, ज्ञान का एक अंश। नानाविध दोष = चमड़ी छीलने, नेत्र उखाड़ने जैसी हिंसा में प्रवृत्त होना। प्रमाण = वस्तु के मान का ज्ञान कराने वाले द्रव्य, क्षेत्र, काल। संपूर्ण वस्तु का ज्ञान। प्रमत्त संयत = प्रमादयुक्त क्रिया करने वाले जीव। परिदेवन = क्लेशयुक्त कथन। पंचास्तिकाय = जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । ये पाँच द्रव्य अधिक प्रमाण के कारण कायवान हैं । इसलिए इन्हें पंचास्तिकाय कहते हैं। बहुल दोष = सभी रौद्र ध्यान में बहुलता से प्रवृत्त होना। भूतोपरोध = प्राणिहिंसा, असत्य भाषण आदि। भंग = क्रम तथा स्थान के आधार पर होने वाले भेद । अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के भेद।
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