________________
जंपुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं। उप्याय-ठिइ-भंगारइयाणमेगंमि पजाए ॥७॥ अवियारंमत्थं-वंजण-जोगंतरओ तयं बितियसुक्कं।
पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं ॥८०॥ वायु से प्रताड़ित न होने वाले निष्कम्प दीपक की तरह जो अन्तःकरण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य में से किसी एक ही पर्याय में अत्यन्त स्थिर होता है वह एकत्व वितर्क अवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान है। यह अर्थान्तर, व्यंजनान्तर और योगान्तर के संक्रमण से रहित होता है। इसीलिए अवीचार कहलाता है। यह पूर्वगत श्रुत का आश्रय लेता है।
निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स।
सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स॥१॥ मोक्ष गमन के समय कुछ योगों का निरोध कर चुकने वाले और सूक्ष्म क्रिया से युक्त केवली को सूक्ष्मक्रिय अनिवर्ति नामक तीसरा शुक्ल ध्यान होता है।
तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स।
वोच्छिन्नकिरियम्प्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं॥२॥ मन, वचन, काय के तीनों योगों का उक्त क्रम से निरोध हो जाने पर पर्वत के समान अचल शैलेशी अवस्था में पहुँचे हुए केवलीको व्यच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति नामक सर्वोत्कृष्ट शुक्ल ध्यान होता है।
पढमंजोगे जोगेसु वा मयं बितियमेयजोगंमि।
तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं ॥३॥ पहला शुक्ल ध्यान विभिन्न योगों में और दूसरा एक ही योग में होता है। तीसरा शुक्ल ध्यान सिर्फ काययोग में और चौथा अयोग अवस्था में होता है।