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अह खंति-मद्दवऽज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ।
आलंबणाइँ जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ॥६६॥ जैन धर्म में क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति का प्रधान महत्त्व है। इन आलंबनों से ही व्यक्ति शुक्ल ध्यान तक पहुँचता है।
तिहुयणविसयं कमसो संखिविउ मणो अणुंमि छउमत्थो।
झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ॥७०॥ शुक्ल ध्यान में स्थिरतापूर्वक लीन व्यक्ति तीन लोक को विषय बनाने वाले अपने मन को क्रमशः संकुचित करता हुआ अणु में स्थापित करता है और फिर मनविहीन होता हुआ अरिहन्त केवली हो जाता है।
जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरंभए डंके। तत्तो पुणोऽवणिजइ पहाणयरमंतजोगेण ॥७१॥ तह तिहुयण-तणुविसयं मणोसिवं जोगमंतबलजुत्तो।
परमाणुमि निरंभइ अवणेइ तओवि जिण-वेजो॥७२॥ जिस प्रकार संपूर्ण शरीर में व्याप्त विष को मन्त्र द्वारा डंक के स्थान पर निरुद्ध किया जाता है और फिर ज्यादा प्रबल मन्त्र के द्वारा उसे डंक के स्थान से भी हटा दिया जाता है उसी प्रकार तीन लोकरूपी शरीर को विषय बनाने वाले मन रूपी विष को ध्यान रूपी मन्त्र के बल से परमाणु में अवरुद्ध किया जाता है। फिर जिनेन्द्र भगवान रूपी वैद्य उसे परमाणु से भी हटा देते हैं।
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