________________
रागद्दोस-कसाया ऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं।
इह-परलोयावाओ झाइजा वज्जपरिवजी॥५०॥ वर्जनीय का त्याग करने वाले धर्मध्यान के साधक को यह भी विचार करते रहना चाहिए कि राग, द्वेष, कषाय और आस्रव में लिप्त प्राणी अपना यह लोक और परलोक बिगाड़ रहे हैं।
पयइ-ठिइ-पएसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं।
जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेजा॥५१॥ धर्म ध्यान के साधक को विचार करना चाहिए कि प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाव पर आधारित भेदों वाले कर्म शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी। योग और अनुभाव से उत्पन्न होने वाले कर्मविपाक पर भी उसे विचार करते रहना चाहिए।
जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणा ऽऽसण-विहाण-माणाई।
उप्पायट्ठिइभंगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ॥५२॥ जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट द्रव्य लक्षण, आकार, आसन, विधान, मान तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर आधारित पर्याय भी धर्म ध्यानी के विचार के विषय होने चाहिए।
पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहाणं जिणक्खायं।
णामाइभेयविहियं तिबिहमहोलोयभयाई॥५३॥ जिनेन्द्र भगवान ने पंचास्तिकाय लोक को अनादि अनन्त कहा है। वह नाम आदि के भेद से आठ प्रकार का और अधोलोक आदि के भेद से तीन प्रकार का है। इस विषय पर भी धर्मध्यानी को विचार करते रहना चाहिए।
19