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सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु। वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा॥४०॥ तो देस-काल-चेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि।
जोग समाहाणं जह होइ तहा (प) यइयव्वं ॥४१॥ मुनिजनों ने विभिन्न देश, काल और शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में अवस्थित रहते हुए पापों को नष्ट करके कैवल्य प्राप्त किया है। इसलिए आगम में ध्यान के लिए देश, काल, आसन आदि का कोई नियम नहीं दिया गया है। जिसमें मन, वचन, काय के योग सधैं वही प्रयत्न करना चाहिए। ..
आलंबणाइँ वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽणुचिंताओ।
सामाइयाइयाइं सद्धम्मावस्सयाइं च॥४२॥ वाचना, प्रश्न पूछना, सूत्रों का अभ्यास, अनुचिन्तन, सामायिक और सद्धर्म की ज़रूरी बातें-ये ध्यान के आलम्बन हैं।
विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो।
सुत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ॥४३॥ जिस प्रकार कोई व्यक्ति रस्से जैसे किसी मज़बूत पदार्थ का सहारा लेकर विषम चढ़ाई चढ़ लेता है, उसी प्रकार ध्यान का साधक सूत्रों का सहारा लेकर श्रेष्ठ ध्यान तक जा पहुँचता है।
झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ।
भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहोए॥४४॥ मोक्ष होने के ठीक पहले केवल ज्ञानी के (शुक्ल) ध्यान की प्राप्ति का क्रम मनोयोग आदि का निग्रह है। शेष (धर्म ध्यान) के लिए उसकी प्राप्ति का क्रम समाधि के अनुसार है।
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