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अट्टं रुद्दं धम्मं सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई । निव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्ट-रुद्दानं ॥५॥
ध्यान के चार प्रकार हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । आर्त और रौद्र ध्यान संसार ओर एवं धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । धणियं विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च || ६ ||
[ आर्त ध्यान चार प्रकार का है । ] द्वेष से मलिन व्यक्ति को इन्द्रियों की विषयवस्तु के वियोग की चिन्ता रहना और उस विषय वस्तु के फिर प्राप्त नहीं होने का बार - बार ख्याल आना ओर्त ध्यान का पहला प्रकार है ।
तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ||७||
सिर दर्द जैसे किसी दर्द को मिटाने के लिए लगातार सोचना और अगर मिट जाय तो वह फिर न हो यह चिन्ता आर्त ध्यान का दूसरा प्रकार है ।
saणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स ।
अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥ ८॥
अभीष्ट विषयों का वियोग न हो, इसके लिए रागी व्यक्ति को निरन्तर चिन्तन करना पड़ता है। संयोग नहीं हो तो संयोग की अभिलाषा करनी पड़ती है । यह आर्त ध्यान का तीसरा प्रकार है ।
देविंद-चक्कवट्टित्तणाइं गुण- रिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचिंतमण्णाणाणुगयमच्वंतं ॥ ६ ॥
देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के गुणों एवं सम्पत्तियों की आकांक्षा करने से पैदा होने वाला चिन्तन अतिशय अज्ञान का नतीजा है । यह आर्त ध्यान का चौथा और निकृष्टतम प्रकार है ।
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