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________________ विषय विमुखता रूपी संयम लक्ष्य प्राप्त मोक्षार्थी जीव को अनुकूलता रूपी लोक प्रवाह को छोड़कर स्वयं के आत्मा को प्रतिकूलता रूपी सामने के पूर में चलाना अर्थात् अनुकूलता का पक्ष तजकर संयम के विविध कष्टों को प्रसन्नचित्त से स्वीकार करने रूपी प्रतिकूलता का पक्षकर संसार समुद्र से पार उतरना। अनुकूलता आपात मधुर होने से रुची वैसी होने पर भी परिणाम में कातिल विषसम आत्मा के भाव प्राण रूपी ज्ञानादि गुणों का नाश करती है। और प्रतिकूलता प्रारंभ में कटु दुःख दायी होने पर भी औषध सम परिणाम में जीव को कर्म रोग से मुक्त करती है। फिर भी मूढ़रोगी जैसे औषध का प्रतिपक्षी होता है वैसे अनेक आत्मा मोह मूढ़ होने से प्रतिकूलता से डरते हैं। अनुकूलता के वश होकर कर्मरूपी रोग को बढ़ाते हैं उनका अनुकरण करना किसी भी प्रकार से हितकर नहीं है। उनका अनुकरण छोड़कर परीषह-उपसर्ग आदि कष्ट सहन करने रूपी सामे पूर तरने तुल्य श्री जिनाज्ञा का निरतिचार पालन करना। ऐसे करनेवाले का ही मोक्ष होता है। जो लज्जा और दाक्षिण्यता से भी लोकानुसरण करता है वह संसार में परिभ्रमण करता है। जिनाज्ञा का उल्लंघन कर अन्यका अनुकरण करना। उसमें वस्तुतः लज्जा भी नहीं है और दाक्षिण्यता भी नहीं जैसे जल प्रवाह में तैरने में परिश्रम-कष्ट का अनुभव नहीं होता पर सामने पूर में तैरने में अधिक परिश्रम होता है। वैसे कष्ट से भयभीत अनेक लोग अनादिलोक प्रवाहको अनुसरने में आनंद मानते हैं। विवेकी ऐसे अल्प मुनि भगवंत ही अनुकूलताश्रय से भावी कष्ट के भय से वर्तमान में कष्ट सहन रूपी प्रतिकुलता में आनंदानुभव करते हैं। वे ही संसार से पार होते हैं। कारण कि अनुकूलता संसार मार्ग, प्रतिकूलता मोक्षमार्ग मुख्य मार्ग से विगइ वापरनेवाले को आगम और विगइ के रोगी को छेद सूत्र वांचने-पढ़ने का अधिकार नहीं है। ऐसा आगम वचन है। गृहस्थ की किसी भी प्रकार की वैयावच्च करने से साधुको अविरतिका पोषण, प्रशंसा, अनुमोदना आदि दोष और गृहस्थ को भी गृहवास प्रति राग बढ़े, साधु प्रति सन्मान घटे, सन्मान घटने से दान, वंदन-पूजन करते हुए भी विरति का रागी न बने श्रावक धर्म से भी वह वंचित हो जाय। ऐसे दोनों को विविध दोषोत्पत्ति होती है। अतः उत्तम साधु ऐसा नहीं कर सकता। और ऐसा करनेवाले शिथिल साधुओं के साथ में रहे नहीं। संग का रंग संयम के रागी साधुको भी भविष्य में निष्ठुर परिणामी बनाकर संयम से दूर कर सकता है। वर्तमान में प्रायः उत्तम आत्मा भी श्रेष्ठ आलंबन के द्वारा ही विकास कर सकता है। इससे उत्तम गुरु की निश्रा जीवनपर्यंत न छोड़नी चाहिए। उससे श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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