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________________ उपकारी है। जो गुरु को प्रसन्न नहीं कर सकता, वह कभी देव को प्रसन्न नहीं कर सकता। कहा है कि गुर्वाज्ञा विराधक जिनकथित अनुष्ठान करने पर भी जिनाज्ञा पालक नहीं है। अतः गुरु को धर्म का सर्वस्व मानकर विनयपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिए। उपकारी दो प्रकार से हैं। एक अनंतर दूसरा परंपर। जिनका साक्षात् उपकार हो वे अनंतर और परोक्ष उपकार हो वह परंपर कहा जाता है। तीर्थंकरों से लगाकर पूर्व महर्षि परंपर उपकारी एवं संयम शीखानेवाले गुरु साक्षात् उपकारी होने से अनंतर उपकारी हैं। इस प्रकार सभी से निकटतम उपकारी गुरु है। उनके समान दूसरे उपकारी नहीं ऐसा माने। मात्र ज्ञानादि प्राप्त करने के ध्येय से विनय करनेवाला यथार्थ विनय नहीं कर सकता। कर्म निर्जरा के ध्येय से विनय करनेवाले को निर्जरा होने से गुण तो प्रकट होते हैं और विशेष में मुक्ति भी प्राप्त होती है। अतः सद्गुरु विनय एक मुक्ति के ध्येय से करना। इस प्रकार किया हुआ विनय गुरु को प्रसन्न कर सकता है। और ऐसे प्रसन्नता पूर्वक के आशीर्वाद से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इस उद्देश में विनय को धर्म का मूल बताकर उसके क्रमिक फल बताये हैं। उसके बाद 'रीस करे देता शिखामण भाग्यदशा परवारी' इस कहावत को चरितार्थ करनेवाली अविनित को होनेवाली हानी बतायी है। उसके बाद तिर्यंच- मनुष्य एवं देवगति में भी जीव विनय-अविनय के कैसे फल का अनुभव करता है वह कहा है। लौकिक विद्या के लिए विविध कष्ट भुगतने पड़तें हैं और विनय करना पड़ता है तो लोकोत्तर विद्या (ज्ञान-क्रिया) प्राप्त करने हेतु गुरु विनय अवश्य करना ही होगा। ऐसा विधानकर विनय करने की रीत एवं अविनय हो जाय तो गुरु से शीघ्र क्षमापना करने का कहा है। उत्तम आत्मा प्रकृति से विनित होने से वह विनय को समझता है एवं करता है। इससे विपरीत बहुलकर्मी, मूढ़ बार-बार प्रेरणा करने पर भी नहीं करता अगर करे तो भी अप्रसन्न रहता है। इत्यादि उत्तम अधम जीव अंतर बताया है । प्रान्ते विनीत का अवश्य मोक्ष होता है। अतः विनय करना चाहिए ऐसा कहकर दूसरा उद्देशा पूर्ण किया है। वस्तुतः गुण मात्र आत्मा के स्वभाव रूप होने से आत्मा में प्रकट होते हैं, बाहर से प्राप्त नहीं हो सकते। मात्र उन-उन गुणों को आच्छादन करनेवाले आवारक कर्मो का नाश करने की जरूरत है। वह वैसे-वैसे गुण वाले उत्तम पुरुष की सेवा करनी आदि रूप विनय से नाश होते हैं। अतः विनय करने की आवश्यकता है। गुरु शय्या से कम मूल्यवाली शय्या उपयोग में लेनी । नीचे भूमि पर बिछाई हुई और प्रमाण में न्यून हो वह शय्या नीचे समझना। गुरु के साथ चलने में गुरु से विशेष दूर न चलकर शीघ्रता किये बिना पीछे-पीछे चलना वह गति - चाल (नीचे) मंद कही है। श्रामण्य नवनीत ६७
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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