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________________ स्खलना नहीं होती। एक को उपकार करते समय दूसरे को अपकार हो वह वास्तविक उपकार नहीं है। अतः मुनि किसी जीव को उपद्रव हो वैसी बात उपकार के लिए भी न कहे। किन्तु स्वकर्मोदय रूप दुःख को समता से भोग लेने का उपदेश करे। दुःख में से छूटने का उपाय दुःख के निमित्तों से दूर होना यह नहीं है, पर समता पूर्वक भोग लेना है। दुःख से त्रसित होकर उसके निमित्तों को दूर करने की इच्छा करनी आर्तध्यान है। ऐसी समझयुक्त मुनि निमित्तादि मंत्र-तंत्रादि का उपदेश कैसे करेगा? ___अकेला होते हुए स्त्रीयों को धर्मकथा कहे तो उसके ब्रह्मचर्य में शंकादि हो अतः औचित्य समझकर पुरुषों को और अन्य साधु साथ में हो तो स्त्रीयों को भी सुनावे। गृहस्थ के परिचय से स्नेह प्रतिबंध लघुतादि दोष होते हैं। अतः उसे छोड़ना और सुसाधु का परिचय कल्याण मित्र के योग्य होने से संयम वृद्धि हेतु करना। सीके मृत देह को देखकर भी राग होने का संभव है। वैसे चित्र से भी रागोत्पत्ति होती है। अतः सूर्य के सामने दृष्टि लगाने से नेत्रों का तेज नष्ट होता है उसी प्रकार स्त्री के सामने दृष्टि लगाने से आतम तेज (ज्ञानादि गुणों की शक्ति) नष्ट होता है। और मोह का (विकार का) अंधकार छा जाने से स्वयं के कर्तव्य का, जाति का, कुल का, भान या भविष्य के संकटों का भय कुछ नहीं दिखता। धनिकजैसे चोरों से दूर रहता है और रक्षण पूर्वक रहता है। वैसे चारित्ररूपी धन वाला मुनि स्त्री से दूर और नित्य नववाड़ रूप रक्षण में रहे। एक भी वाड का भंग न करे। __ वसति आदि एक भी वाड़ की उपेक्षा ब्रह्मचर्य का घात करता है। स्त्री संभोग से ब्रह्मचर्य का घात होता है। वैसे विकारी विचार मात्र से भी ब्रह्मचर्य का घात होता है। विभूषादि कार्य विकारोत्तेजक होने से आत्मार्थी को विशेष रूप से छोड़ने चाहिए। जिस द्वार से गृह स्वामी घर में प्रवेश करता है, उसी द्वार से चोरादि भी प्रवेश करते हैं। वैसे ही जो-जो निमित्त शरीर को सुखशाता उपजाने की दृष्टि से सेवन किये जाते हैं, वे ही निमित्त आत्मा में विकार प्रकटकर चारित्र धन को लूट लेते हैं। मोहोदय होने का कारण होने से आत्मा को स्त्री के अंगोपांगों को देखने का निषेध किया है। स्त्री को देखने का निषेध करने के बाद पुनः अंगोपांगों का निषेध करने का हेतु यह है कि उन अंगोपांग कटाक्षादि एक-एक में इतना सामर्थ्य है कि एक का सेवन भी ब्रह्मचर्य का सर्वथा नाश कर दे। पुरुषप्रधान उपदेश से पुरुष को स्त्री का निषेध वैसे स्त्री को पुरुष के अंगोपांग आदि देखने का निषेध समझना। इसी कारण साधुको स्त्री से दूर रहना चाहिए। विनय अर्थात् 'स्वयं मान छोड़कर दूसरों को मान-सन्मान का दान करना' ऐसा ६२ श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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